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चार दुर्लभ गुण उन्हें दंड नहीं दे सकते थे? पर नहीं, दंड देने के बजाय उन्होंने ऋषि के चरण पकड़ कर पूछा-"ऋषिराज ! आपको चोट तो नहीं आई ?" इसी प्रसंग को लेकर कहा गया है
कहा विष्णु को घटि गयो, जो भृगु मारी लात ।" अभिप्राय यही है कि बुराई का बदला बुराई से देने वाला व्यक्ति कभी महान् नहीं कहलाता अपितु बुराई के बदले भलाई करने वाला और शक्तिशाली होने पर भी क्षमा कर सकने वाला व्यक्ति ही महत्ता को प्राप्त करता है।
इसीलिये श्लोक में कहा गया है कि शौर्य के साथ अगर क्षमा का गुण भी हो तो व्यक्ति के चारित्र में चार चाँद लग जाते हैं।
४. वित्तं त्यागनियुक्त यह बात श्लोक में चौथे नम्बर पर दी गई है। प्रत्येक व्यक्ति को इसे समझ कर जीवन में उतारना चाहिए तथा अपने जीवन को संतोषमय एवं निःस्वार्थी बनाना चाहिए।
कवि ने कहा है कि धन को त्यागयुक्त होना चाहिए अर्थात् धन की प्राप्ति होने पर उसे परोपकार एवं दानादि कार्यों में खर्च करना चाहिए ।
श्लोक में पहली बात बताई थी कि दान प्रिय शब्दों के साथ दिया जाना चाहिए और अब चौथी बात यह बताई जा रही है कि धन की वृद्धि होने के साथ ही साथ व्यक्ति के हृदय में उसके त्याग की भावना भी उत्तरोत्तर बढ़ती जानी चाहिए । कंजूस बनकर धन इकट्ठा करने से आखिर व्यक्ति को क्या लाभ हो सकता है ? क्योंकि अन्त में तो मृत्यु से सामना होते ही वह छोड़ना पड़ता है, इससे यही अच्छा है कि उस धन से औरों का परोपकार करके पुण्य रूपी पूंजी को साथ ले लिया जाय । जड़ द्रव्य आत्मा के साथ नहीं आता पर पुण्य-कर्म साथ चलते हैं।
इसके अलावा मानवता के नाते भी व्यक्तियों का कर्तव्य है कि वे एक-दूसरे की जिस प्रकार मी बने तन, मन या धन से सहायता करें। ऐसा न करना निर्दयता एवं क्रूरता का द्योतक है। भगवान के सच्चे भक्त तो संसार के समस्त जीवों को परमात्मा का ही अंश मानते हैं। किसी भी अन्य प्राणी को दुःख हो तो उन्हें महान् पीड़ा का अनुभव होता है । संत ज्ञानेश्वर ऐसे ही महापुरुष थे।
संत का एकात्मभाव ___ एक बार वे पैठण के शास्त्रज्ञ ब्राह्मणों से शुद्धिपत्र लेने के लिए आलन्दी से पैदल यात्रा करके गये।
ज्ञानेश्वर जी पैठण पहुँचे और उनके साथ ही उनकी अन्य जीवों के प्रति एकात्म-भावना की प्रशंसा भी पहुँच गई। सभी स्थानों पर अच्छे और बुरे व्यक्ति
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