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________________ ४८ आनन्द प्रवचन | छठा भाग मानता है और अन्य व्यक्तियों के महान गुणों को भी न कुछ के समान समझता है । अगर उसे थोड़ा-सा भी ज्ञान हासिल हो जाय तो उसका उपयोग औरों से वादविवाद करने में तथा कुतर्कों के द्वारा दूसरों को चुप करने में करता है। किन्तु ऐसा करने से ज्ञानी जनों की तो कोई हानि नहीं होती, उलटे उसका ज्ञान ही निष्फल जाता है 'विद्या स्तब्धस्य निष्फला ।' यह भगवद्गीता की उक्ति है कि दुराग्रही और अभिमानी की विद्या सर्वथा फलहीन हो जाती है। कहने का आशय यही है कि किसी भी व्यक्ति को अपने ज्ञान का रंच-मात्र भी गर्व नहीं होना चाहिए । साथ ही उसे अपने ज्ञान को कंजूस के धन की भाँति गोपनीय भी नहीं रखना चाहिए अपितु जितना भी उसे ज्ञान हासिल हुआ हो उसे औरों को अत्यन्त स्नेह एवं निःस्वार्थ भाव से प्रदान करना चाहिए । प्राचीनकाल में विद्वान आचार्य शहर से बाहर वनों में अपने आश्रम बनाकर रहते थे तथा जो भी छात्र ज्ञान-प्राप्ति के हेतु उनके पास आते थे, उन्हें बिना अर्थलालसा के अपने समान ही ज्ञानी बनाने का प्रयत्न करते थे। इसी का सुफल होता था कि वे अपना परिचय ही अपने ज्ञानदाता गुरुओं के नाम से देते थे। अमुक गुरु ने मुझे ज्ञान-दान दिया है, यह बताने में वे बड़ा गौरव और हर्ष का अनुभव करते थे। अपनी विद्वत्ता और अपने ज्ञान का उन्हें रंच-मात्र भी गर्व नहीं होता था। इसीलिए उन व्यक्तियों का ज्ञान गम्भीर और गहन बनता था तथा यश की प्राप्ति कराता था । आज भी ऐसे महापुरुषों की कमी नहीं है जो अपनी विद्वत्ता की प्रशंसा सुनना कतई पसन्द नहीं करते । निरभिमानी सन्त विनोबा भावे कहते हैं कि एक बार सन्त विनोबा भावे अपने आश्रम में छात्रों को किसी विषय पर कुछ समझा रहे थे कि एक व्यक्ति ने उन्हें महात्मा गाँधी की ओर से लाया हुआ पत्र उनके हाथ में थमाया। __विनोबा जी ने पत्र लिया, उसे खोलकर पढ़ा और उसी समय उसके टुकड़ेटुकड़े कर दिये । उनके छात्रों को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने पत्र के विषय में बड़े आग्रह से पूछा । विनोबा जी ने उत्तर दिया-"पत्र महात्मा जी का था, किन्तु उन्होंने इसमें गलत बात लिखी थी अत : मैंने इसे फाड़ दिया।" छात्र बोले-"गुरुदेव ! यह कैसे हो सकता है ? महात्मा गाँधी भला झूठी बात कभी लिख सकते हैं ? कृपया हमें बताइये कि क्या बात इसमें थी?' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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