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चार दुर्लभ गुण
छात्रों की जिज्ञासा के कारण विनोबा जी ने उन्हें बताया- ' " इस पत्र में महात्मा गाँधी जी ने लिखा था कि ऐसी ज्ञानवान और महान् आत्मा मेरे देखने में नहीं आई। उनकी यह बात झूठ है। दुनिया में बहुत से मनुष्य और स्वयं गाँधी जी भी मुझसे महान् तथा श्रेष्ठ हैं । इसके अलावा यह पत्र अगर मेरे पास रहता तो मुझे अपने आप के लिए गर्व का अनुभव होता और मेरी अवनति का कारण बनता । गर्व सदा उन्नति में बाधक होता है अतः त्याज्य है । यही कारण है कि मैंने इस पत्र को फाड़ दिया और अपने पास रखना उचित नहीं समझा । "
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इसी प्रकार जब विनोबा जी बनारस में संस्कृत का अध्ययन कर रहे थे तो उन्हें कई प्रमाण-पत्र उनकी प्रशंसा से भरे हुए मिले । किन्तु एक दिन उन्होंने उन सबको इकट्ठा करके गंगाजी को समर्पित कर दिया । केवल यही विचार करके कि इनके कारण कहीं मुझमें अभिमान न जाग जाय ।
सन्त विनोबा जी के जीवन के इन संस्मरणों से सहज ही प्रगट होता है कि महापुरुष कभी अपने ज्ञान का गर्व नहीं करते, उसे अपने तक ही सीमित नहीं रखते तथा निःस्वार्थ भाव से उसे ज्ञान-पिपासुओं को प्रदान करते हैं ।
३. क्षमान्वितं शौर्य
यह श्लोक में बताई हुई तीसरी बात है । इसका अर्थ है— शूरवीरता तथा सामर्थ्य होते हुए भी क्षमा धारण करना । जो व्यक्ति निर्बल और शक्तिहीन होता है वह तो किसी के द्वारा अपमानित होकर अथवा मारा-पीटा जाकर भी चुप हो जाता है, कोई प्रतिकार नहीं करता । क्योंकि उसमें बदला लेने की शक्ति ही नहीं होती । ऐसा व्यक्ति अगर यह कहे कि मैंने अपने आततायी को क्षमा कर दिया, तो उसकी क्षमा कोई महत्व नहीं रखती ।
किन्तु बदला लेने की शक्ति होते हुए भी जो शूरवीर अपने शत्रु को अथवा अपना अपमान करने वाले को क्षमा कर देते हैं, वे ही क्षमा-धर्म के अधिकारी कहलाते हैं ।
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भस्म कर देने के बजाय सेवा की एक सन्त बड़े तपस्वी थे । घोर तपस्या के बल पर उन्हें अनेक सिद्धियाँ हासिल हो गई थीं । वे चाहते तो बात की बात में किसी को भी भस्म कर सकते थे । किन्तु वे सच्चे संत थे और संत का स्वभाव क्षमामय एवं करुणामय होता है ।
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एक बार वे घूमते-घामते हुए कहीं जा रहे थे । मार्ग में एक जंगल आया । जब वे जंगल में से गुजर रहे थे, एक दुष्ट व्यक्ति ने उन्हें देखा । उस व्यक्ति को साधु-संतों से बड़ी चिढ़ थी अतः उन्हें देखते ही वह गुस्से से भर गया और बोला"मैं यहाँ रहता हूँ, फिर भी तूने यहाँ आने की हिम्मत कैसे की ?"
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