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________________ आनन्द प्रवचन | छठा भाग अपने भोजन में से ही आधा या कुछ ग्रास ही जिसे आवश्यकता है उसे क्यों नहीं देते ? क्योंकि 'अन्नदानात् परं नास्ति ।' यानी सभी दानों से श्रेष्ठ अन्न-दान होता है, उसका मुकाबला कोई अन्य दान नहीं कर सकता। बन्धुओ, प्रसंगवश मैंने आहारदान के विषय में बताया है। वैसे सभी दान महान पुण्य के कारण बनते हैं बशर्ते कि वे अत्यन्त प्रेम की भावना से दिये जायें। करुणा, सहानुभूति एवं स्नेहभाव के अभाव में हृदय में रूक्षता रहती है और उस स्थिति में दान आन्तरिक मधुरता के द्वारा नहीं दिया जा सकता। कबीर जी ने अपने एक दोहे में कहा भी है जा घर प्रेम न संचरे, सो घर जान मसान । जैसे खाल लुहार की, साँस लेत बिन प्रान ॥ दोहे में स्नेह का बड़ा भारी महत्व बताया गया है। इसमें प्रेम-शून्य हृदय को श्मशान की तुलना में रखा है। हमारा धर्म संसार के समस्त प्राणियों पर प्रेम रखना सिखाता है । और ऐसा होने पर ही व्यक्ति एक दूसरे की सहायता करता है, सेवा करता है और अभावग्रस्त व्यक्तियों के अभाव की पूर्ति करने में प्रसन्नता का अनुभव करता है । प्रेम के न होने पर यह सब सम्भव भी कैसे हो सकता है ? __सन्त कबीर ने प्रेम-रहित हृदय को लुहार की धोंकनी के समान बताते हुए कहा है कि जिस प्रकार वह निर्जीव मशीन के समान चलती रहती है। उसी प्रकार अगर व्यक्ति के हृदय में स्नेह का निर्झर प्रवाहित न होता हो तो उसका हृदय केवल धोंकनी के समान ही सांस लेता है तथा जीवन को बनाए रखता है। किन्तु वह किसी का उत्साह, उमंग एवं प्रेम से भला नहीं कर पाता। अगर वह कुछ करता भी है तो अपनी प्रतिष्ठा बनाने और दिखावा करने के लिए। पर उत्तम भावना के अभाव में उसका किया हुआ उत्तम कार्य क्या शुभ फल प्रदान कर सकता है ? कुछ भी नहीं । इसीलिए विमलगणी जी आचार्य ने अपने श्लोक में कहा है कि मधुर भावनाओं और प्रिय वचनों के साथ दान दो। २. ज्ञान का गर्व न होना प्रायः देखा जाता है कि व्यक्ति थोड़ा-सा भी लिख-पढ़ लेता है तो वह अपने आपको बड़ा चतुर और योग्य समझने लगता है। और तो और, अपने माता-पिता को भी वह अपने से हीन मानने लगता है, फिर औरों की तो बात ही क्या है ? वह भूल जाता है कि अहंकार मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। जिसके हृदय में भी यह पनप जाता है उसे अवश्यमेव पतन की ओर ले जाता है तथा जन्म-जन्मा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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