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चार दुर्लभ गुण
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अब दुर्वासाजी को अपनी रक्षा की कोई सूरत नहीं दिखाई दी और इधर चक्र की ज्वाला उनके शरीर को जलाये दे रही थी। अतः वे विवश होकर पुनः महाराज अम्बरीष के पास आये और उनके पैरों पर गिर पड़े।
__ अम्बरीष यह देखकर महान् दुःख से भर गये एवं उसी क्षण उन्होंने ऋषि को उठाकर अपने आपको ब्राह्मण एवं अतिथि के पैर छूये जाने पर लगने वाले पाप से बचाया तथा हाथ जोड़कर अत्यन्त विनम्रतापूर्वक प्रार्थना की- "भगवान नारायण अगर मुझ से तनिक भी सन्तुष्ट हों और मेरा कुल सदा से ब्राह्मणों का भक्त रहा हो तो महर्षि दुर्वासा चक्रोत्पन्न ताप से पूर्णतया रहित हो जायँ ।"
___अम्बरीष के यह प्रार्थना करते ही चक्र ताप-रहित हो गया और दुर्वासा ऋषि संकट से मुक्त हो गये । पर इन सब घटनाओं के घटते हुए एक वर्ष का समय व्यतीत हो गया था। इस बीच राजा अम्बरीष ने भोजन नहीं किया था, क्योंकि वे अपने अतिथि को भोजन नहीं करा सके थे। अब जब दुर्वासाजी एक वर्ष बाद लौटे तो उन्होंने एक वर्ष तक जल के ऊपर निर्वाह करने के पश्चात् उस दिन परम प्रसन्नता एवं नम्र वचनों से स्वयं सामने बैठकर अतिथि को भोजन कराया और फिर स्वयं अन्न ग्रहण किया।
इसे कहते हैं अतिथि-सत्कार एवं प्रीति-युक्त अन्न-दान । अतिथि को भोजन न करा पाने के कारण एक वर्ष तक केवल जल पीकर उनकी प्रतीक्षा करना क्या साधारण व्यक्तियों का कार्य है ?
आज तो देखा जाता है कि शहर में ठहरे हुए सन्त-मुनिराजों की प्रतीक्षा भी लोग दस-पाँच मिनिट के लिए भी नहीं करते। इतना ही नहीं, अगर उनके भोजन करते समय सन्त घर पर भिक्षा के लिए पहुँच जायँ तो वे उठकर खड़े होना भी पसन्द नहीं करते, अपने हाथ से भावना पूर्वक आहार देना तो दूर की बात है। साथ ही साधु-साध्वी को आहार देना ऐसे व्यक्तियों के घरों में नौकर-चाकरों के जिम्मे होता है और उन्हें स्वयं यह देखने का समय नहीं होता कि सन्तों ने आहार लिया है या नहीं?
वे यह भी विचार नहीं करते कि शुद्ध हृदय से एवं आन्तरिक भावना-पूर्वक दिया हुआ आहारदान कितने महान् फल की प्राप्ति कराता है । और किसी कारण से अगर सन्त-मुनिराज बिना आहार लिये लौट जाएँ तो सद्गृहस्थ को जो असह्य पश्चात्ताप होता है वह भी देवगति के बन्ध का कारण बनता है । 'पंचतन्त्र' में कहा गया है
ग्रासादर्धमपि ग्रासमथिभ्यः किं न दीयते ? मनुष्य के लिए कहा गया है कि अगर तुम अधिक दान नहीं दे सकते तो
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