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________________ आनन्द प्रवचन | छठा भाग बार अम्बरीष के पारणे का दिन था, ठीक पारणे के समय दुर्वासा ऋषि वहाँ पहुँच गये । राजा महर्षि को अतिथि के रूप में आया पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने दुर्वासाजी से भोजन ग्रहण करने की प्रार्थना की। ऋषि ने निमन्त्रण को स्वीकार किया और वे स्नान एवं सन्ध्या आदि करने के लिए नदी तट की ओर चल दिये । ४४ इधर महाराज अम्बरीष बड़े धर्मसंकट में पड़ गये। क्योंकि द्वादशी का समय बहुत थोड़ा रहा था और दुर्वासा ऋषि को स्नान एवं सन्ध्या का ध्यान करते हुए कितना समय लगेगा यह निश्चित नहीं था । द्वादशी का पारणा करना आवश्यक था अन्यथा व्रत भंग होता और उधर अतिथि को खिलाये बिना खाने से भी महान् दोष का भागी बनना पड़ता । अतएव राजा ने केवल गङ्गाजल से आचमन करके व्रत की रक्षा की और भोजन नहीं किया क्योंकि अतिथि लौटे नहीं थे । इस प्रकार उन्होंने अपनी समझ से दोनों ही अपराधों से बचाव किया । किन्तु दुर्वासा ऋषि जब लौटे तो उन्होंने राजा के गङ्गाजल से आचमन करने को जान लिया और उसके कारण ही क्रोध से आगबबूला हो गये । साथ ही दुर्वासा ऋषि तो ठहरे अतः क्रोध करके भी शान्त नहीं हुए, अपितु उन्होंने अपनी जटाओं में से एक जटा उखाड़ ली और उससे राजा को भस्म करने के लिए कृत्या उत्पन्न कर दी । राजा अम्बरीष दुर्वासा के क्रोध पर और उनके कृत्या उत्पन्न करने पर भी निर्भय और बिना हिले-डुले शान्त भाव से वहीं खड़े रहे । वे प्रत्येक परिणाम के लिए तैयार थे और निकट ही था कि दुर्वासा ऋषि की जटा से उत्पन्न कृत्या उन्हें नष्ट कर देती, भगवान के उनकी रक्षा के लिए नियत किये हुए चक्र ने उनकी रक्षा की । पीछे पड़ गया । उनके पर उनके पीछे-पीछे चक्र ने कृत्या को तो नष्ट किया ही साथ ही वह लिए लेने के देने पड़ गये । अपनी प्राणरक्षा के चक्र भी चला । दुर्वासा के लिए वे भागे शरण लेने पहुँचे पर आपके लिए ।" कैलाश पर्वत भागते-भागते ऋषिराज ब्रह्मलोक में ब्रह्माजी के पास उन्होंने टका-सा उत्तर दे दिया – “यहाँ जगह नहीं है पर शंकरजी के पास जाने पर उन्होंने भी रूक्षभाव से कहा - " मैं असमर्थ हूँ आपको बचाने में ।” अब दुर्वासाजी के देवता कूच कर गये पर उसी समय नारदजी ने प्रकट होकर उन्हें स्वयं नारायण भगवान के पास भेजा । पर चक्र के अधिकारी नारायण भगवान भी उन्हें संकट से त्राण नहीं दिला सके और बोले— " ऋषिराज मैं तो स्वयं ही भक्तों के आधीन हूँ अतः आप पुनः राजा अम्बरीष के पास ही जाइये, अगर आपको अपना बचाव करना है तो ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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