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________________ चार दुर्लभ गुण ४३ होनी चाहिए इसे स्पष्ट करता है । हम इन चारों पर क्रम से संक्षिप्त विचार करेंगे । १. प्रियवाक्य - सहित दान देना श्लोक में बताई हुई चारों बातों में से पहली बात है, दान मधुर वचनों के साथ दिया जाय । इस कथन से स्पष्ट है कि दान देने वाले की भावनाएँ दान देते समय अत्यन्त स्नेह एवं सहानुभूतिपूर्ण होनी चाहिए । ऐसा होने पर ही जबान से भी मधुर और प्रिय वाक्यों का उच्चारण हो सकेगा । हम प्रायः देखते हैं कि बड़े-बड़े सेठ साहूकार अपनी पेढ़ियों पर प्रसन्न और सन्तुष्ट भाव से बैठे हुए देखे जाते हैं, किन्तु अगर कोई चन्दा लेने वाला आ जाता है तो उसे देखते ही पल भर में उनका चेहरा परिवर्तित हो जाता है, अर्थात् उसी क्षण प्रसन्नता और सन्तुष्टि के स्थान पर खिन्नता और झुंझलाहट उनके आनन पर स्पष्ट देखी जा सकती है । यद्यपि अपनी साख के कारण और धन होने पर भी कन्जूसी को उनके नाम के साथ न जोड़ा जाय तथा समाज में हेठी न दिखाई दे, इस कारण वे दान देते हैं तथा जिस प्रकार लोग वस्तुओं का मोल-भाव करते समय उसकी कीमत कम से कम करवाना चाहते हैं, इसी प्रकार चन्दा भी कम देना पड़े, इसलिए बकझक करते हुए जितना दिये बिना चलता ही नहीं, उतना ही देते हैं । इसी प्रकार द्वार पर भिक्षुक को देखते ही लोगों की त्योरियाँ चढ़ जाती हैं । पहले तो वे उसे आलसी, हराम का खाने वाले, चोर तथा उचक्के आदि आदि सुन्दर पदवियों से विभूषित करते हुए जी भर कर कटु वाक्य तथा व्यंगोक्तियाँ कहते हैं और कमा कर खाने का उपदेश देते हैं। पर इस पर भी भिखारी अपने धर्मानुसार बिना कुछ लिए टलने का नाम ही नहीं लेता तो मारे गुस्से के रूखी-सूखी एकाध रोटी लाकर उसे देते हैं पर वह भी अनेक गालियों के साथ । यही हाल हमारी अधिकांश बहनों का भी होता है । अगर उनकी इच्छा के विपरीत घर मालिक अगर दो-चार व्यक्तियों को जिमाने के लिए ले आएँ तो वे चम्मच-करछुल पटकना या बड़बड़ाना शुरू कर देती हैं । अरे भाई ! मेहमान आये हैं तो उन्हें चाहे हँसते-हँसते खिलाओ या रोते-रोते, खिलाना तो पड़ेगा ही, फिर प्रसन्न - चित्त और मधुर - संभाषण के साथ खिलाने में आखिर क्या हानि है ? वैष्णव धर्मग्रन्थों में महाराज अम्बरीष की कथा आती है । राजा अम्बरीष भगवान के सच्चे भक्त थे । वे भगवद्भक्ति में इतने लीन रहा करते थे कि स्वयं भगवान को उनकी और उनके राज्य की रक्षा के लिए अपने सुदर्शन चक्र को नियुक्त करना पड़ा । अम्बरीष सदा एकादशी का व्रत करते थे और उसका पारणा द्वादशी को । क्योंकि एकादशी का पारणा द्वादशी को करने का ही विधान है । संयोगवश जबकि एक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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