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________________ चार दुर्लभ गुण धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो ! आज पर्युषण पर्व का महत्त्व समझते हुए समाज के अग्रगण्य महानुभावों ने अपने समाज के हितार्थ बहुत कुछ उत्तम कार्य करने का जो निश्चय किया है, वह हमारे लिए भी अत्यन्त प्रसन्नता का विषय है और समाज के लिए भी गौरवपूर्ण है। समाज की सेवा जितनी और जिस प्रकार की जा सके प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिए, क्योंकि सांसारिक दृष्टि से यह उसका पुनीत कर्तव्य है और आध्यात्मिक दृष्टि से भी पुण्य-संचय का मार्ग है । शुभ कर्मों के साथ भावनाएं भी शुभ हों बन्धुओ, अभी आपने समाज-हित के लिए जो कुछ भी करने का विचार किया है वह सराहनीय है और मुझे विश्वास है कि आप वह सब करेंगे। किन्तु यहाँ मैं एक महत्त्वपूर्ण बात और आपको समझाना चाहता हूँ जिससे आपके द्वारा किये जाने वाले उत्तम कार्य सोने में सुगन्ध पैदा करने वाले भी साबित हो सकें। यह इस प्रकार हो सकता है कि आपने सेवा, परोपकार और दानादि के द्वारा जो कुछ करने का बीड़ा उठाया है, उसके साथ आपकी भावनाएँ भी आपके कार्यों की अपेक्षा अधिक उत्तम हों। अगर ऐसा नहीं हुआ और आपने उत्तम कार्य करते हुए भी मन को खिन्न, विवश या निरुत्साह बनाये रखा तो आपके किये हुए पर सम्पूर्ण रूप से पानी फिर जायेगा। इस विषय को एक श्लोक के द्वारा बड़े सुन्दर ढंग से समझाया गया है और बताया है कि शुभ कार्यों के पीछे किस प्रकार की शुभ भावनाएँ भी होनी चाहिए। श्लोक इस प्रकार है "दानं प्रियवाकसहितं, ज्ञानमगवं क्षमान्वितं शौर्यम् । वित्तं त्यागनियुक्त दुर्लभमेतत् चतुर्भद्रम् ॥" यह श्लोक श्री विमलगणी जी आचार्य के द्वारा लिखा गया है और इसमें चार बातों की दुर्लभता के विषय में बताया गया है। ये चारों ही बातें जैसा कि अभी मैंने कहा है, मनुष्य के उत्तम कार्य और उसके साथ ही कैसी उत्तम भावनाएँ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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