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________________ आनन्द प्रवचन | छठा भाग हुए पुनः आनन्द-मग्न हो जायेंगे । कोई भी सगा-सम्बन्धी तेरी स्मृति में दो बूंद आँसू नहीं बहायेगा। इसलिए नादान प्राणी ! तू इन सब स्वार्थ के सगों का मोह छोड़कर यह विचार कर कि इनके लिए नाना प्रकार के पापों को करके तू अकेला ही उन्हें भोगेगा और मृत्यु के पश्चात पुनः पुनः गर्भावस्था के घोर कष्टों को सहन करने के लिए बाध्य हो जायेगा।" तो बन्धुओ, संसार के साधु-पुरुष अज्ञानी प्राणियों को मोह-माया में फंसकर अपना जीवन निरर्थक करते हुए देखते हैं तो उन्हें तरस आता है और वे उनकी आत्मा पर दया एवं करुणा का भाव लाकर उन्हें बार-बार संसार की वास्तविक स्थिति समझाते हैं । और इतना ही वे कर भी सकते हैं, क्योंकि कर्ता केवल प्रत्येक प्राणी की अपनी आत्मा ही होती है । एक व्यक्ति कभी दूसरे के लिए शुभ या अशुभ कर्मों का उपार्जन नहीं कर सकता, न वह अपने शुभ कर्म दूसरे को किसी भी प्रकार दे ही सकता है। अगर ऐसा न होता तो बड़े-बड़े तीर्थंकर और चक्रवर्ती स्वयं ही अपने अपार वैभव और साम्राज्य को छोड़कर आत्म-साधना के लिए गृह-त्याग क्यों करते ? कहा भी है बड़े-बड़े भूपालों ने क्यों जग से नाता तोड़ा? अपना विस्तृत निष्कंटक क्यों राज उन्होंने छोड़ा ? वस्तुतः जब हम देखते हैं कि आत्मकल्याण का इच्छुक प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह राजा हो, श्रेष्ठि हो और फकीर ही क्यों न हो, स्वयं साधना करता है और स्वयं ही कर्मों को नष्ट करने का प्रयत्न करता है तो यह बात समझ में आ जाती है कि अपना भला-बुरा करने की क्षमता स्वयं अपनी आत्मा में ही है। श्री उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट बताया गया है अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय सुपट्ठिओ ॥ -अध्ययन २०, गा० ३७ अर्थात् आत्मा ही अपने सुख-दुःख को उत्पन्न करने वाला जनक है और आत्मा ही उनका विनाशक है । सन्मार्ग पर लगा हुआ चारित्रवान आत्मा अपना मित्र है और कुमार्ग पर गमन करने वाला दुराचारी आत्मा ही दुश्मन है। इस यथार्थ को अज्ञानी पुरुष नहीं समझ पाते। जिस प्रकार कुत्ता लाठी मारने वाले व्यक्ति को छोड़कर लाठी को पकड़ने के लिए दौड़ता है, उसी प्रकार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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