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पराये दुःख दूबरे तुम्हारे लिए और क्या हो सकता है कि अपने पति को तुम जीवनदान दो और इसके कन्धे पर चढ़कर मांग में सिन्दूर लिए हुए स्वर्ग की ओर जाओ।" _"हाँ महाराज ! इससे बढ़कर सौभाग्य मेरे लिए और कोई नहीं हो सकता। पर मेरे मर जाने से ये सास-ससुर जीवित ही मर जायेंगे। अतः मैं इनकी हत्या अपने सिर नहीं ले सकती।" मर जाने के डर से विकल हुई पत्नी ने चट से उत्तर दे दिया।
इस प्रकार सभी ने अपने प्राण देने के लिए बहाने किये और एक भी ब्राह्मण के लिए मरने को तैयार नहीं हुआ।
तब संन्यासी ने ब्राह्मण को सम्बोधित करते हुए कहा-"अब उठ जाओ वत्स ! सबकी परीक्षा हो गई। देख लो प्राणों से भी ज्यादा प्यार करने वाले तुम्हारे इन सम्बन्धियों में से एक भी तुम्हारे लिए प्राण देने को तैयार नहीं है। इसीलिए मैं कहता था कि कोई किसी का नहीं है, सब स्वार्थ के सगे हैं।"
ब्राह्मण की आँखें खुल गई और वह भलो-भाँति समझ गया कि जिनके लिए मर-खप कर वह सुख के साधन जुटा रहा है, वे केवल सुख के भागी हैं, उसके दुःख को बाँटने वाला एक भी संसार में नहीं है। यह विचार करता हुआ वह उठा और उसी वक्त संन्यासी के साथ घर छोड़कर रवाना हो गया। ___ संसार की ऐसी स्थिति को देखकर ही महापुरुष जीव को उद्बोधन देते हुए कहते हैं
ये दिन चार कुटुम्ब सों लार,
सो झूठ पसार के संग बंधानो। मात-पिता सुत दार निहारि,
सो सार बिसारि के फंद फंदानो। पानी से पिंड संवारि कियौ,
नर ताहि बिसारि अनंद सो मानो। तुलसी तब की सुधि याद करो,
उलटे मुख गर्भ रह्यो लटकानो ॥ पद्य में कहा है- "हे जीव जीवन के इन चार दिनों में भी तू कुटुम्ब के मोह में पड़ा हुआ धन के पसारे में लगा हुआ है। माता, पिता, पुत्र और पत्नी के झूठे प्यार के कारण आत्मा के लिए कल्याणकारी सार-तत्व को भूल गया है।
तू यह भी भूल गया है कि जब तक तुझमें इन सबको खिलाने-पिलाने की शक्ति है तभी तक ये तेरे हैं और जिस दिन भी तू आँख मूंद लेगा ये सब केवल तुझे पिण्डदान करके निश्चिन्त हो जायेंगे और अपने जीवन के सुखों का उपयोग करते
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