________________
आनन्द प्रवचन | छठा भाग
चेतन वस्तु से सम्बन्ध नहीं है । और तो और यह शरीर जो सबसे अधिक आत्मा के निकट रहता है, वह भी आयु पूर्ण होने पर जीव से अलग हो जाता है । तो जब शरीर भी इसी पृथ्वी पर रह जाता है, साथ नहीं जाता। तब पुत्र-कलत्रादि दुःख में भाग लेने के लिए कैसे साथ जा सकते हैं ?
__ इसीलिए पं० शोभाचन्द्र जी 'भारिल्ल' ने मानव को चेतावनी देते हुए बड़ी सुन्दर सीख दी है । वे कहते हैं
घिरे रहो परिवार से पर भूलो न विवेक । रहा कभी मैं एक था, अन्त एक का एक ॥ पापों का फल एकले, भोगा कितनी बार । कौन सहायक था हुआ, कर ले जरा विचार ॥ कर जिनके हित पाप तू, चला नरक के द्वार ।
देख भोगते स्वर्ग-सुख, वे ही अपरम्पार ॥ मनुष्य को उद्बोधन दिया है कि-'भले ही तुम लम्बे-चौड़े परिवार में रहो, पर अपने विवेक को मत छोड़ो और सदा यह ध्यान रखो कि मैं अकेला ही आया था और अन्त में अकेला ही जाऊँगा।'
और भी कहा है-'देख, तूने पहले भी पापों का फल अनेक बार भोगा है पर क्या कभी भी कोई और उस समय तेरा सहायक बना था ? अर्थात् किसी ने तेरे दुःख में हिस्सा लिया था क्या ? इसका तनिक विचार तो कर !'
भारिल्ल जी ने अन्तिम दोहे में तो बड़ी ही मार्मिक बात कही है। उन्होंने मनुष्य को जाग्रत और सावधान करने के लिए झिड़की देते हुए कहा-'भोले जीव ! जिन कुटुम्बी जनों को सुख पहुँचाने के लिए तूने जीवन भर नाना प्रकार के पाप किये हैं और अब उन पापों के फलस्वरूप नरक की ओर प्रयाण करने की तैयारी कर रहा है, वे ही तेरे सगे-सम्बन्धी स्वर्ग में अपार सुख भोग रहे हैं।'
कहने का अभिप्राय यही है कि मनुष्य अपने पुत्र, पौत्र, पत्नी आदि निकट सम्बन्धियों को सुखी रखने के लिए घोर अनैतिकता, धोखेबाजी, बेईमानी और कपटाचरण करके पापों की भारी पोट बाँध लेता है। पर जिनके लिए वह असंख्य पाप करता है वे उसके द्वारा अजित धन के मोग में ही भाग लेते हैं, घन के लिए किए हुये पापों का फल भोगने में हिस्सा नहीं बँटाते । उन पापों को भोगने के लिए नरक में तो व्यक्ति अकेला ही जाता है ।
इसीलिए कहा जाता है कि संसार में कोई किसी का नहीं है । सब स्वार्थ के सगे-सम्बन्धी हैं । यहाँ तक कि परलोक की बात तो दूर, इस लोक में भी कोई दुःख
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org