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पराये दुःख दूबरे
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ध्यान में रखने की बात है कि गृहस्थ, जो सांसारिक सुख-भोगों में ही निमग्न रहता हुआ सुख का अनुभव करता है वह अपनी आत्मा को भविष्य में मिलने वाले दुःखों के विषय में नहीं समझ पाता । अर्थात् अपने दुःख को वह खुद ही नहीं जानता । परन्तु साधु दीर्घ-दृष्टि होते हैं अत: वे आत्मा का अदृश्य रूप से पीछा करने वाले पाप-कर्म रूपी चोरों को पहचानते हैं और उनसे बचाने के लिए अपने पड़ोसी श्रावकों को सदा उद्बोधन देते हैं । उनकी आत्माओं पर उन्हें तरस आता है। यही कारण है कि वे अपने कल्याण के प्रयत्न के साथ-साथ पर-कल्याण का प्रयास भी करते रहते हैं । और तो वे कर भी क्या सकते हैं ? अगर उनका वश चले तो वे अन्य प्राणियों के दुःखों का भार भी स्वयं ढो लेवें किन्तु यह तो प्राण दे देने पर भी सम्भव नहीं होता । अर्थात् निश्चय रूप से प्रत्येक प्राणी को अपने-अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है । कर्म-फल का कभी बँटवारा नहीं किया जा सकता, उन्हें बेचा नहीं जा सकता और न ही किसी को उनका दान दिया जा सकता है । हमारे शास्त्रों में स्पष्ट कहा गया हैन तस्स दुक्खं विभयंति नाइओ,
न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा । इक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं,
कत्तारमेवं अणुजाइ कम्मं ॥
-श्री उत्तराध्ययन सूत्र, अ० १३, गा० २३ अर्थात्-पाप करने वाले उस व्यक्ति के दुःख को जाति के लोग, मित्र-मण्डली, पुत्र-पौत्र आदि कुटुम्बीजन अथवा भाई-बन्द कोई भी बाँट नहीं सकते। पाप-कर्म करने वाला स्वयं ही अकेला दुःख भोगता है क्योंकि कर्म, कर्ता का ही अनुसरण करता है ।
यद्यपि अनेक अज्ञानी व्यक्ति अपने पितरों की सुगति प्राप्त हो, इसके लिए श्राद्ध-तर्पण आदि करते हैं और यह समझते हैं कि उनके निमित्त से किया हुआ श्राद्ध उन्हें सन्तुष्ट करेगा और उस पुण्य का फल उन्हें मिल जायगा। किन्तु यह मान्यता सर्वथा गलत है। किसी भी व्यक्ति के द्वारा किये हुए सुकर्म या कुकर्म, दूसरे व्यक्ति को कभी फल प्रदान नहीं कर सकते । अगर ऐसा होने लग जाय तब तो धनी व्यक्ति कभी त्याग, तपस्या और व्रत-नियम अपनायेंगे ही नहीं, वे तो गरीबों से शुभ-कर्म भी खरीद लेंगे, जिस प्रकार अन्य वस्तुएँ खरीदी जाती हैं।
कोई प्रश्न कर सकता है कि जब संसार के सगे-सम्बन्धी सांसारिक पदार्थों में हिस्सा बँटा लेते हैं और भौतिक सुखों के भोग में शरीक होते हैं तो फिर दुःख में भाग क्यों नहीं ले सकते ?
इस प्रश्न का समाधान यह है कि आत्मा का संसार की किसी भी जड़ या
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