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________________ आनन्द प्रवचन | छठा भाग और अंगूर समान हैं तो ऐसी कीमती और स्वादिष्ट वस्तु के विनाश होने से मेरे मन को खेद होता है।" ___ यह विचार आने पर उसने एक डण्डा उठाया और गधे को पड़ौसी के बगीचे से निकाल दिया । बन्धुओ ! यह एक छोटा-सा दृष्टान्त है किन्तु गूढ़ रहस्य और शिक्षा से परिपूर्ण है । आप प्रश्न करेंगे कि ऐसा क्यों ? तो आपका समाधान करने के लिए इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया जा सकता है कि आप और हम भी अंगूरों के बगीचों के मालिक हैं । आपका बगीचा श्रावकधर्म या गृहस्थाश्रम है और हमारा संन्यास-आश्रम या साधुधर्म है। अब जरा गम्भीरता से विचार कीजिये कि साधु और गृहस्थ दोनों में से कौन अपने बगीचे की रखवाली और सार-सम्हाल बराबर करता है ? अगर आपसे मैं यह प्रश्न पूछं तो आप चट से यही उत्तर देंगे-"महाराज बगीचे की रक्षा तो आप ही बराबर करते हैं, हमें तो मरने की फुरसत भी नहीं मिलती, कैसे अपना बगीचा सम्हालें ?" वस्तुतः सच्चे सन्त अपने संयम रूपी बगीचे में लगे हुए ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप-रूप अंगूरों की बेलों की बड़ी सजगता, सावधानी एवं विवेकपूर्वक रक्षा करते हैं । इस बगीचे में आते हुए विषय-विकारों के कचरे को साफ करते रहते हैं तथा दया, करुणा एवं स्नेह के जल से उन्हें सींचते रहते हैं। यही कारण है कि उनका संयम एवं साधना-रूपी बगीचा सदा साफ-सुथरा रहता है एवं शुभ-फल रूपी अंगूर फूलतेफलते हुए सुरक्षित भी रहते हैं । किन्तु इसके विपरीत आज के श्रावक या गृहस्थ अपने बगीचे के प्रति पूर्णतया लापरवाही रखते हुए उसकी ओर तनिक भी ध्यान नहीं देते। परिणाम यह होता है कि क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकारों का कचरा वहाँ जमा हो जाता है और करुणा, सहानुभूति एवं प्रेम-रूपी जल के अभाव में वह सूखने लगता है। इसके अलावा प्रमाद अथवा आलस्य रूपी गधा रही-सही कसर पूरी करता है यानी ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप एवं शील रूपी अंगूरों की बेलों को जड़-मूल से खा चलता है। यह देखकर साधु-पुरुष द्रवित होते हैं और अपने पड़ोसी श्रावक को सावधान करने का बार-बार प्रयत्न करते हैं । वे यह नहीं सोचते कि श्रावक का बगीचा सूख जाय या उसे प्रमाद रूपी गधा चर जाय तो हमारा क्या बिगड़ता है, हम तो अपने बगीचे की रक्षा कर ही रहे हैं। उनके ऐसा न सोचने का कारण उनकी करुणा की भावना होती है । दया का जो अजस्र स्रोत उनके हृदय में प्रवाहित होता है, उसके कारण वे औरों को भी दुखी नहीं देख सकते । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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