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________________ ३१ पराये दुःख दूबरे एवं साधना की क्रियाओं को करके भी क्या हासिल कर सकता है ? कुछ भी नहीं । वह जीवन-पर्यन्त धर्माचरण का ढोंग भले ही करे तथा दूसरों को भी उपदेश दे-देकर अपने वागजाल में फाँस ले, किन्तु स्वयं उसकी आत्मा शुद्धता की ओर एक कदम भी नहीं बढ़ सकेगी। तो बन्धुओ, सच्चा साधु वही होता है जो प्रथम तो अपने जीवन को निर्मल और निष्कलंक बनाकर साधना के क्षेत्र में उतरता है, और तब अन्य अज्ञानी प्राणियों को भी कल्याण का मार्ग सुझाता है । संसार-सागर में डूबते-उतराते प्राणियों के प्रति साधु में स्वयं ही दया का भाव जागृत होता है। हमारे यहाँ दया के आठ प्रकार बताये गये हैं। उनमें स्व-दया और पर-दया भी हैं। स्व-दया से तात्पर्य यह है कि साधक अपनी आत्मा पर दया करके उसे जन्म-मरण के दुःखों से छुटकारा दिलाये और पर-दया का अर्थ है औरों की आत्माओं को भी संसार के दुखों से मुक्त कराने का प्रयत्न करे। परदुःख-कातर महापुरुषों का यही कर्तव्य है और यह कर्तव्य वे बिना किसी अन्य की प्रेरणा और दबाव के करते हैं । दूसरे शब्दों में दया की भावना उनके मानस में इस प्रकार रम जाती है कि वे औरों के दुःखों को देखकर द्रवित हुए बिना और उन्हें दुःखों से मुक्त करने का प्रयत्न किये बिना रह ही नहीं सकते ।। पड़ौसी का कर्तव्य एक छोटा-सा दृष्टान्त है कि दो व्यक्तियों ने एक ही समय में एक-दूसरे के पास ही अंगूर के बगीचे लगाये । उन बगीचों में से एक का मालिक बड़ी होशियारी और सतर्कता से अपने बगीचे का संरक्षण करता था । समय पर पानी देना, कूड़ा-कर्कट साफ करना और बेलों को हानि पहुँचाने वाले जीव-जन्तुओं से उनकी रक्षा करने में वह पूरी सावधानी रखता था। किन्तु अंगूरों के दूसरे बगीचे का मालिक लापरवाह और प्रमादी था अतः वह न तो उसकी सार-सम्हाल ही करता था और न ही उसे हानि पहुँचाने वाले जीवों से बचा पाता था । परिणाम यह हुआ कि एक बार उसके बगीचे में गधा घुस गया और आराम से अंगूर खाने लगा। बगल के बगीचे के मालिक ने अपने पड़ौसी के यहाँ गधे को अंगूर खाते हुए देखा तो विचार किया यद्यपि न भवति हानिः, परकीयां चरति रासभो द्राक्षाम् । वस्तुविनाशं दृष्ट्वा तथापि मे परिखिद्यते चेतः ।। __ अर्थात् 'मेरे पड़ोसी के बगीचे में गधा अंगूर खा रहा है । उससे मेरी कोई हानि नहीं हो रही है क्योंकि वह बगीचा मेरा नहीं है। किन्तु गधे के लिए जब घास Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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