________________
३०
आनन्द प्रवचन | छठा भाग
-
साधु शब्द की व्याख्या करते हुए कहा भी हैसानोति आत्मपरकार्यम् इति साधुः ।
साधु वही होता है जो अपने और पर के कल्याण का प्रयत्न करे ।
यहाँ विचार किया जा सकता है कि साधु को पहले अपना ही भला करने के लिए क्यों कहा गया ? यह तो खुदगर्जी हुई, उसे दूसरों का भला करना चाहिए ।
बनता,
इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि जब तक वह स्वयं भला नहीं तब तक औरों का भला कैसे करेगा ? जब तक वह स्वयं सही मार्ग पर नहीं चलता तब तक औरों को उस मार्ग पर कैसे चलाएगा ? इसके अलावा जब तक वह स्वयं सम्यक् ज्ञान यानी आध्यात्मिक ज्ञान हासिल नहीं करेगा तब तक दूसरों को कैसे ज्ञानी बनायेगा ?
आज सांसारिक विषयों का ज्ञान छात्रों को देने के लिए भी शिक्षक कई वर्षों तक स्वयं पढ़ते हैं तब स्कूलों, कालेजों में पढ़ाते हैं । फिर आध्यात्मिक ज्ञान जिसके द्वारा आत्मा संसार-मुक्त होती है, उसे प्राप्त करना क्या सहज चीज है ? नहीं, उसे प्राप्त करना बड़ा कठिन है और उससे भी कठिन उस ज्ञान को जीवनसात् करना है । केवल धर्मग्रन्थ और धर्मशास्त्र पढ़ लेने से तो काम नहीं चलता जब तक कि उनमें बताई हुई बातों को आचरण में न लाया जाय ।
कोई भी साधु या सज्जन व्यक्ति केवल औरों को ही उपदेश दे कि सत्य बोलो, अहिंसा का पालन करो, अन्य जीवों की रक्षा करो, परोपकार करो, किन्तु वह स्वयं इन बातों पर अमल न करे तो क्या सुनने वाले उसकी बात मानेंगे ? नहीं, वे तुरन्त ही कह देंगे - ' पर उपदेश कुशल बहुतेरे ।' यानी दूसरों को उपदेश देने में तो सभी कुशल होते हैं, स्वयं इन बातों को क्यों नहीं अपनाते ?
कहने का तात्पर्य यही है कि सभी उत्तम गुणों को समझकर उन्हें आचरण में लाना धर्माराधन का मूल है । अगर इस मूल में भूल हो गई तो जीवन भर उपदेश देने से तर्क-वितर्क करने से और थोथी क्रियाओं में उलझे रहने से रंचमात्र भी लाभ नहीं होगा और उत्थान के पथ पर प्राणी एक कदम भी नहीं बढ़ सकेगा ।
अभी-अभी रतनमुनिजी ने आपको एक उदाहरण दिया कि नाविक ने रात भर नाव चलाई किन्तु प्रातःकाल देखा तो पाया कि वह उसी स्थान पर है, जहाँ नाव में बैठा था । इसका कारण यही था कि उसने प्रारम्भिक भूल कर दी थी, यानी किनारे पर जिस रस्सी से नाव बँधी थी उस रस्सी को नहीं खोला था। शुरुआत की इस भूल से उसका रात भर नाव चलाना निरर्थक चला गया ।
ठीक यही हाल आत्म-कल्याण के इच्छुक साधक का भी हो सकता है । अगर वह साधना से पूर्व मन में रही हुई विषय-वासना की डोर को नहीं खोल लेता है तथा आत्मोपयोगी गुणों को अपने जीवन में नहीं उतार लेता है तो फिर जीवन भर तप
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org