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धर्मो रक्षित रक्षितः
___ यहाँ एक बात आपको ध्यान में रखनी चाहिए कि पुण्यों का संचय करके सांसारिक सुखों की उपलब्धि कर लेना ही मनुष्य-जीवन का ध्येय नहीं है । यह सब तो धर्मपरायण व्यक्ति को स्वतः ही मिल जाता है और इसके लिए प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं रहती । आवश्यकता तो हमें अपने सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करने की है । और इसके लिए उत्कृष्ट साधना एवं तपाराधन की जरूरत है।
आजकल आप अन्तगढ़ सूत्र सुन रहे हैं। इसमें बताया जा रहा है कि बड़ेबड़े सेठ-साहूकार एवं राजा-महाराजा अपने समस्त वैभव और ऐश्वर्य का त्याग करके संयम की आराधना में जुट गये थे। यह ठीक है कि आप गृहस्थ हैं और आपको गृहस्थ धर्म का पालन करना है, किन्तु बन्धुओ, ये सांसारिक उलझनें और कर्तव्य तो आपके कभी समाप्त होंगे नहीं और जीवन पूरा हो जाएगा । तो फिर मुक्ति-प्राप्ति के लिए प्रयत्न आप कब करेंगे ?
यह तो निश्चित है कि इस जन्म में न सही पर किसी न किसी जन्म में तो आपको कर्मों के नाश का प्रयत्न करना ही होगा, अन्यथा आत्मा संसार-भ्रमण करती रह जाएगी। तो फिर जब यह करना ही है तो इसी जन्म में क्यों न किया जाय ? किसी अगले जन्म की प्रतीक्षा किसलिए करना ? कौन जाने पुनः यह मनुष्य का जीवन कब मिलेगा और मिलेगा भी या नहीं।
इसलिए श्रेष्ठ यही है कि जीवन की क्षणभंगुरता होने पर भी इसके अनुपम महत्व को समझकर इसे सार्थक बनाने का प्रयत्न किया जाय। कवि बाजिंद ने भी अज्ञानी प्राणियों को उद्बोधन देते हुए कहा है
गाफिल हुए जीव कहो क्यूं बनत है ? या मानुष के सांस जो कोऊ गनत है । जाग लेय हरिनाम कहाँ लौं सोय है,
चक्की के मुख पर्या सो मैदा होय है ॥ कहते हैं- "अरे जीव ! गाफिल रहने से तेरा क्या बनेगा ? यानी सांसारिक कार्यों में तो तू सदा तत्पर रहता है किन्तु आत्म-हित के लिए साधना करने में कल, परसों और उसके बाद भी कहता है बुढ़ापे में कर लेंगे । यह प्रमाद तुझे ले डूबेगा । क्योंकि यह कौन व्यक्ति जानता है कि इस शरीर में मुझे इतने श्वास अवश्यमेव लेने हैं । अर्थात् जीवन की यह डोरी कब तक मजबूत रहेगी, यह कौन कह सकता
इसलिए अच्छा यह है कि आज और इसी क्षण अपनी प्रमाद-निद्रा का त्याग कर दे तथा चैतन्य होकर हरि का नाम ले। सोते रहने से काम नहीं चलेगा क्योंकि
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