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________________ २४ आनन्द प्रवचन | छठा भाग . सती सुभद्रा की कथा आप सब अच्छी तरह जानते हैं, जो फरेब करके उससे विवाह करने वाले पति से भी क्रोधित नहीं हुई और सास के द्वारा दुश्चरित्रता का कलंक लगाये जाने पर भी आपे से बाहर नहीं हुई । उसने अपने धर्म पर दृढ़ विश्वास रखा और उसके फलस्वरूप ही धर्म ने उसके शील की शुद्धता का प्रमाण देत हुए संसार में पूजनीय बनाया और सदा के लिए अमर कर दिया। ऐसी नारियाँ स्वयं अपने को यशस्वी बनाती हुई अपने पितृकुल और श्वसुरकुल, दोनों को ही उज्ज्वल बना देती हैं। ५. विनयी पुत्र ___श्लोक में छठा सुख पुत्र का विनयी होना कहा गया है । आज के युग में अनेक व्यक्ति हमारे पास भी शिकायत लेकर आते हैं कि उनके लड़के उनकी बात नहीं मानते तथा मनमानी करते हैं । वे हमसे कहते हैं कि आप उन्हें समझाइये। पर हम क्याक्या कहें, उत्तम संस्कार तो बालक की शैशवावस्था में ही डाले जाने चाहिए। कच्ची मिट्टी को कुम्हार चाहे जैसा गढ़ लेता है, पर उसके पक जाने पर फिर कुछ नहीं होता । इसी प्रकार बालक जब तक छोटा है, उसमें माता-पिता के द्वारा सतत सुन्दरसुन्दर आदतें डाली जानी चाहिए। गुरुजनों का आदर करना तथा सुबह-शाम उनके पैर छना सिखाना चाहिए। इसी प्रकार उनके हृदय में सच बोलने की, चोरी न करने की, किसी से झगड़ने या गालियाँ न देने की प्रवृत्ति जन्म ले, इसकी कोशिश करनी चाहिए। ___आज हम चारों ओर यानी कॉलेजों में, स्कूलों में, घरों में और यहाँ तक कि संत समाज में भी देखते हैं कि शिक्षार्थी शिक्षक का आदर नहीं करते, पुत्र माता-पिता की परवाह नहीं करते और शिष्य गुरु की आज्ञानुसार नहीं चलते । ऐसी स्थिति, समय और काल में अगर पुत्र विनयी हो और शिष्य आज्ञाकारी हो तो वह धर्म के प्रताप से ही माना जाना चाहिए । पुत्र की प्राप्ति तो सभी को होती है और एक ही नहीं कई-कई पुत्र होते हैं। पर अगर वे सुपुत्र न हों तो उनके होने से क्या लाभ है ? कुछ भी नहीं, उल्टे वह माता-पिता के लिए सदा चिन्ता और दुःख के कारण बने रहते हैं । महात्मा विदुर ने कहा हैजनक वचन निदरत निडर, बसत कुसंगति माहि । मूरख सो सुत अधम है, तेहि जनमे सुख नाहिं ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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