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________________ आनन्द प्रवचन | छठा भाग आकाशवाणी जिस प्रकार सन्त ने सुनी, उसी प्रकार उन सभी असभ्य और दुष्ट व्यक्तियों ने भी सुनी। उसे सुनकर सब काठ के मारे से बैठे रह गये और मृत्यु के डर से काँपने लगे। किन्तु उसी समय सन्त ने हाथ जोड़कर गद्-गद् स्वर से आकाशवाणी के उत्तर में कहा "नहीं, कृपा करके ऐसा अनर्थ मत करना । ये सब अज्ञानी प्राणी हैं और क्षमा करने के लिए पात्र हैं । भूले हुए व्यक्तियों को क्षमा करना ही ज्ञानियों का कर्तव्य है, अत: इन्हें कोई कष्ट न पहुँचाया जाय।" सन्त के ये वचन सुनते ही सब आततायी उनके चरणों पर गिर पड़े और अपने अपराधों के लिए क्षमा माँगते हुए सदा के लिए ईश्वर के और सन्तों के सच्चे भक्त बन गये । तो बंधुओ, सच्चे साधु एवं महापुरुष अपने शत्र ओं का भी उपकार करते हैं। और वह भी किसी के द्वारा प्रशंसा प्राप्त करने के लिए या अपनी सराहना किये जाने के लिए नहीं वरन् अपने आत्म-तोष एवं करुणा की भावना के कारण वे ऐसा कहते हैं । इसी के फलस्वरूप यश स्वयं आकर उनके नाम के साथ जुड़ जाता है । ४. पतिव्रता स्त्री की प्राप्ति अब धर्म के प्रभाव से प्राप्त होने वाले चौथे सुख के विषय में बताना है। श्लोक में कहा गया है कि चौथा सुख है पतिव्रता अर्थात् पति में ही अपना चित्त अनुरक्त रखने वाली स्त्री की प्राप्ति होना । इस संसार में ऐसी स्त्रियों का मिलना भी कठिन है जो अपनी सम्पूर्ण निष्ठा पति में रखती हैं । आज हम देखते हैं कि जब तक पति अपनी पत्नी की सारी जरूरतें पूरी करता रहे तथा उसे नित्य नये वस्त्र और आभूषण बनवाता रहे, तब तक तो वह पति में भक्ति और उसके प्रति प्रेम रखती किन्तु उन सबमें जरा सी भी कसर पड़ते ही उसे कटूक्तियाँ और व्यंगोक्तियाँ सुनाना प्रारम्भ कर देती है । __ तुलसीदासजी से कहा भी है काम क्रोध लोभादि मद, प्रबल मोह के धारि । तिन्ह महं अति दारुन दुखद, माया रूपी नारि । कहते हैं कि मनुष्य को काम, क्रोध, मद, लोभ और मोह आदि सभी कषाय अति दुखदायी होते हैं, किन्तु अगर नारी पतिव्रता, सुघड़ और सुसंस्कृत न मिले तो वह महान् असह्य दुःख का कारण बनती है। ___ आपने संत तुकाराम की पत्नी के बारे में अनेक बार सुना होगा। वह इतनी फूहड़ और दुष्ट थी कि मौका पाते ही समय-असमय पति से लड़ती-झगड़ती और मार देने से भी बाज नहीं आती थी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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