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धर्मो रक्षित रक्षितः
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नहीं की । वे तो उलटे त्याग के बल पर यशस्वी बने हैं । वे अपने नाम और यश के पीछे नहीं दौड़े, अपितु यश ने उनका पीछा किया है । सच्चे सन्त और महापुरुष जो कि धर्म के मार्ग पर चलते हैं, 'नेकी कर और कुँए में डाला' वाली कहावत को चरितार्थ करते हैं | अपने शत्रु पर भी वे क्रोध नहीं करते तथा उससे बदला लेने की भावना नहीं रखते । इसका कारण यही है कि वे सभी प्राणियों को आत्मवत् समझते हैं और अपना अनिष्ट करने वाले को अज्ञानी मानते हैं ।
संत का क्षमाभाव
अयोध्या में एक वैष्णव संत सरयू नदी को पार करने की इच्छा से उसके घाट पर आये । उस समय वर्षा ऋतु का जोर और नदी में बाढ़ होने के कारण घाट पर एक ही नाव थी । और उस नाव में अनेक अशिष्ट एवं दुष्ट प्रकृति के लोग बैठे हुए थे ।
संत को देखते ही लोग उपहास और व्यंग से बोले – “हमारे साथ कोई ढोंगी बाबा नहीं बैठ सकता । साधुओं को किसी दूसरी नाव से जाना चाहिये । वहीं रहो, इधर मत आओ ।" इस प्रकार जिस व्यक्ति को जो सूझा उसने वही कहा ।
किन्तु रात्रि का समय था और नाव एक । अतः संत ने मल्लाह से नम्रता पूर्वक कहा
"भाई ! अगर तुम मुझे अपनी नाव से नहीं ले चलोगे तो मुझे पूरी रात यहाँ पड़े रहना पड़ेगा ।"
मल्लाह बेचारा भला और श्रद्धालु आदमी था अतः उसने संत से कहा"भगवन्, इसमें कहने की क्या बात है ? आप इसी नाव में एक ओर विराजं जाइये ।" नाव में बैठे हुए दुष्ट लोग मल्लाह के कारण उस समय तो कुछ नहीं बोले, किन्तु नाव चलते ही उन्होंने संत को कटूक्तियाँ और गालियाँ देनी प्रारम्भ कर दीं । सन्त कुछ नहीं बोले । वे चुपचाप शान्तिपूर्वक ईश्वर का जप करते रहे ।
यह देखकर वे लोग और चिढ़े तथा उनमें से किसी ने सन्त पर पानी डाला, किसी ने पीठ पर मुक्के लगाये और दो-चार ने मिलकर उन्हें पानी में गिरा देने का प्रयत्न किया ।
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इतना होने पर भी सन्त का चेहरा पूर्ववत् मधुर मुस्कान से भरा रहा और वे सम्पूर्ण उत्पात शान्ति से सहन करते रहे । पर जब दुष्ट व्यक्ति उन्हें धकेल कर पानी में गिराने लगे और साधु के जीवन को खतरा हो गया तो देवताओं को क्रोध आया और उन्होंने आकाशवाणी के द्वारा पूछा -
"महात्मन् ! आप आज्ञा दें तो इन सब दुष्ट व्यक्तियों को हम क्षण भर में भस्म कर दें । "
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