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सम्मान की आकांक्षा मत करो
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इस प्रकार जिस तप के द्वारा सम्पूर्ण कर्मों को नष्ट किया जा सकता है, उस तप को तपस्वी ने उलटे कर्म - बंधनों का कारण बनाया । वह भूल गया कि - 'भव कोडी - संचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जई ।'
अर्थात् - साधक करोड़ों भवों के संचित कर्मों को तपस्या के द्वारा क्षीण कर सकता है ।
तपस्वी यह जानता था, किन्तु क्रोध ने उसे अंधा बना दिया और परिणाम यह हुआ कि वह मरकर राजा श्रेणिक की रानी चेलना के गर्भ में आया ।
उसके गर्भ में आते ही रानी चेलना के हृदय में दोहद उत्पन्न हुआ कि - "मैं महाराज श्रेणिक के कलेजे का मांस खाऊँ ।” चेलना सती - साध्वी नारी थी । अतः अपनी ऐसी इच्छा के जाग्रत होने पर बड़ी चकित और हैरान हुई । भला अपने 'पति के कलेजे' का मांस खाने की अभिलाषा वह कैसे व्यक्त कर सकती थी ? उसे यह भी ज्ञात नहीं था कि उसके गर्भ में आने वाला जीव श्रेणिक के पूर्व जन्म का बैरी है ।
वह उस गर्भस्थ प्राणी के कारण उत्पन्न होने वाली तीव्र इच्छा को दबाने लगी और इसका परिणाम यह हुआ कि निरन्तर हृदय के अपने भावों से संघर्ष करते रहने से उसका शरीर कमजोर, कांतिहीन और पीला पड़ने लगा ।
अपनी प्रिय रानी चेलना की यह हालत देखकर राजा चिन्ता हुई और उन्होंने रानी से इसका कारण पूछा। रानी क्या व्याधि तो उसके शरीर में थी नहीं । पर राजा के अत्यधिक आग्रह अपने विचित्र दोहद के विषय में राजा को बताया ।
राजा ने शांति से रानी की बात सुनी और उसके पश्चात् अपने बुद्धिमान मन्त्री अभयकुमार से इस बारे में बात की । अभयकुमार विचक्षण बुद्धि के धनी थे, वे समझ गये कि रानी के गर्भ में कोई श्रेणिक का शत्रु ही आया है और आ ही वह दोहद उत्पन्न करके अपना वैर निकालना चाहता है । उन्होंने राजा को सान्त्वना देते हुए कहा- "महाराज ! आप चिन्ता मत कीजिये । मैं ऐसा उपाय करूँगा कि साँप भी मर जाएगा और लाठी भी नहीं टूटेगी ।"
श्रेणिक को बड़ी बताती ? कोई करने पर उसने
अपनी योजना के अनुसार अभयकुमार ने रानी के पार्श्व में स्थित भवन में किसी और प्राणी के मांस के टुकड़े किये, पर साथ ही राजा श्रेणिक को इस प्रकार करा - हने एवं आर्तनाद करने के लिए कहा, जैसे कि उनके ही प्राण निकल रहे हों । कुछ समय पश्चात् ही मांस ले जाकर रानी को दिया गया और रानी ने उसे खाकर संतुष्टि का अनुभव किया। रानी का दोहद पूर्ण हुआ और राजा के प्राण भी अभयकुमार की बुद्धिमत्ता के कारण बच गये ।
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