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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
बंधुओ ! मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि तपस्वी ने राजा श्रेणिक के निमंत्रण और उसके पश्चात् बुलाये जाने की अपेक्षा रखी थी, उसके कारण ही उसकी स्वयं की घोर तपस्या तो निरर्थक गई ही साथ ही रानी चेलना और श्रेणिक को भी मुसीबत में पड़ना पड़ा।
इसीलिये भगवान महावीर स्पष्ट आदेश देते हैं कि मुनि कभी भी किसी के द्वारा अभिवादन किये जाने की, किसी के द्वारा खड़े होकर अभ्यर्थना करने की और निमन्त्रित किये जाने की आकांक्षा न करे । ऐसा करने पर ही वह 'सत्कार परिषह' पर विजय प्राप्त कर सकेगा तथा संवर-मार्ग पर सरलता से बढ़ सकेगा । 'सत्कार परिषह' यद्यपि अनुकूल परिषह है और इसके कारण शरीर को कोई कष्ट नहीं उठाना पड़ता, उलटे मन को सुख प्राप्त होता दिखाई देता है। किन्तु मन में राग-भाव एवं अहंकार उत्पन्न करके यह आत्मा के बंधन का कारण बनता ही है और कालान्तर में उसे संसार-भ्रमण कराता हुआ कष्ट पहुँचाता है । अतः साधु के लिए और प्रत्येक अन्य मुमुक्षु के लिए भी सत्कार एवं सम्मान को परिषह समझकर उससे बचना आवश्यक है । ऐसा करने पर ही कर्मों के आवरणों को हटाया जा सकेगा तथा आत्मा निरन्तर हलकी हो सकेगी।
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