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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
अपने यहाँ आने का निमन्त्रण दिया। तपस्वी ने भी निमन्त्रण को स्वीकार कर लिया किन्तु जब पारणे का दिन आया तो राजा उन्हें बुलाना भूल गये । यह कोई बड़ी बात भी नहीं थी क्योंकि राजा के पीछे राज्य की अनेकों झझटें और चिन्ताएँ लगी रहती हैं।
पर तपस्वी राजा के न बुलाने पर पारणे के दिन उसके यहाँ नहीं गए और बिना पारणा किये ही दूसरा मासखमण प्रारम्भ कर दिया। इधर कुछ दिन बाद जब राजा को यह ध्यान आया और मालूम हुआ कि तपस्वी ने पारणा किये बिना ही दूसरा मासखमण प्रारम्भ कर दिया है तो उन्हें अत्यन्त खेद हुआ और उसी वक्त जाकर उन्होंने तपस्वी से क्षमा याचना करके अगले पारणे के लिये निमन्त्रण दे
दिया।
किन्तु संयोग की बात थी कि ठीक पारणे के दिन राजा श्रेणिक फिर उन्हें बुलाना भूल गये और तपस्वी ने तीसरा मासखमण प्रारम्भ कर दिया । पर ध्यान आते ही राजा को बड़ा भारी दुःख हुआ और वे तपस्वी के पास जाकर बोले"महाराज ! मुझसे फिर महान् भूल हो गई । कृपा करके इस बार मेरे यहाँ अवश्य पधारियेगा।" तपस्वी ने उनके निमंत्रण को फिर स्वीकार कर लिया।
किन्तु कहा जाता है कि- "होनहार कभी टल नहीं सकती।" दुर्भाग्यवश तीसरे मासखमण के पारणे के दिन भी श्रेणिक तपस्वी को बुलाना भूल ही गये । बहुत देर तक तो तपस्वी ने उनकी प्रतीक्षा की किन्तु वे नहीं आए तो उन्हें भयानक क्रोध ने आ घेरा। - अब क्या था । क्रोध तो जो न करे वही अच्छा है । आप जानते ही हैं कि क्रोध की आग क्रोध करने वाले को जलाती है और जिस पर किया जाय उसको भी जला डालती है । शास्त्रों में तो यहाँ तक कहा गया है
कोहेण अप्पं डहतिं परं च,
अत्थं च धम्मं च तहेव कामं । तिव्वंपि वेरं य करेंति कोहा, अधमं गति वाविउविति कोहा ।।
__-ऋषिभाषित ३६-१३ क्रोध से आत्मा 'स्व' एवं 'पर' दोनों को जलाता है, अर्थ, धर्म और काम को जलाता है, तीवैव्र र भी करता है तथा नीच गति को प्राप्त करता है ।
तो बंधुओ, यही क्रोध तपस्वी के मानस में प्रज्वलित हो उठा और उसने तपस्वी के विवेक को भस्म कर दिया । परिणाम यह हुआ कि मारे क्रोध के उसने निदान किया- "अगर मेरी तपस्या का फल मुझे प्राप्त हो तो यही कि मैं राजा श्रेणिक को मारूँ।"
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