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सम्मान की आकांक्षा मत करो
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चार का एक अंग है कि कोई व्यक्ति हमारे यहाँ आए तो हम उसी वक्त उठकर खड़े होकर उसका सत्कार करें। आप गद्दी पर बैठे होते हैं और अगर कोई विशिष्ट व्यक्ति आपके सन्मुख आता है तो आप उसी क्षण उठकर उसका सत्कार करते हैं। यही साधु-संत के लिए होता है कि उनके सामने आते ही श्रावक उठकर खड़े हो जाते हैं और वन्दनादि के द्वारा उन्हें सम्मान देते हैं। किन्तु साधु के कहीं पहुंचने पर अगर कोई व्यक्ति ऐसा न करे तो भी उन्हें इस बात पर रंचमात्र भी ध्यान नहीं देना चाहिए और न ही इसकी आकांक्षा रखते हुए क्रोध करना चाहिए । साधु के मन में पल मात्र के लिए भी यह विचार कभी नहीं आना चाहिए कि अमुक व्यक्ति का या अमुक साधु का इस व्यक्ति ने खड़े होकर स्वागत किया और मेरे आने पर ऐसा नहीं किया। इस विचार को लेकर कभी यह भी नहीं सोचना चाहिए कि अब कभी मुझे इसके यहाँ नहीं जाना है। सामने वाला व्यक्ति उठकर खड़ा हो या न हो, नमस्कार करे या न करे, साधु के हृदय में इस बात के कारण किसी भी प्रकार की खेद-खिन्नता का भाव उत्पन्न नहीं होना चाहिए। ऐसा होने पर ही अपने समभाव के कारण वह संवर में प्रवेश कर सकता है ।
अब आता है तीसरा शब्द-'निमंत्तणं ।' इसका अर्थ है निमन्त्रण । साधारणतया आप लोग किसी के द्वारा निमन्त्रण देने पर ही भोजन करने अथवा चायनाश्ता लेने जाते हैं किन्तु साधु अतिथि होते हैं अतः वे निमन्त्रण की अपेक्षा नहीं रखते । चाहे कोई निमन्त्रण दे अथवा नहीं, वे जितनी जरूरत होती है, उतने के लिए बिना किसी के निमन्त्रित किये किसी के यहाँ भी जाकर भिक्षा आदि लाते हैं। वे यह विचार नहीं करते कि अमुक ने मुझे निमन्त्रण नहीं दिया या बुलाया नहीं तो उसके घर नहीं जाएँगे। निमन्त्रण देने पर ही जाना अन्यथा नहीं, ऐसा विचार करना घमण्ड का द्योतक है और घमण्ड करना कर्म-बन्धन का कारण। इसलिए. साधु को ऐसी भावना से सर्वथा परे रहना चाहिए। ऐसा न करने पर अर्थात् निमन्त्रित किये जाने और बुलाये जाने की अपेक्षा रखने पर कभी-कभी बड़े भयानक परिणाम सामने आते हैं और अगले जन्मों में भी उसका फल भोगना पड़ता है। एक उदाहरण से इसे स्पष्ट करता हूँ।
विचित्र दोहद महाराज श्रेणिक के समय में एक तपस्वी संत थे। वे महीने-महीने की तपस्या किया करते थे। वे एक महीने का उपवास तप करके पारणा करते और पुनः मासखमण प्रारम्भ कर देते थे।
__ऐसा करने के कारण शहर में उनकी बड़ी प्रशंसा होने लगी और राजा श्रेणिक के कानों तक भी यह बात पहुँची। सुनकर श्रेणिक के हृदय में उन्हें मासखमण का पारणा कराने की इच्छा हुई और उन्होंने संत के पास जाकर पारणे के दिन
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