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________________ चार दुष्कर काय ३०६ रखता हुआ भी अपने शत्रु को क्षमा कर देता है। प्रभुता-सम्पन्न, शक्तिशाली और वीर पुरुष ही क्षमावान कहलाते हैं। संसार में सबसे अधिक शक्तिशाली तीर्थंकर होते हैं, अतः वे सबसे अधिक क्षमावान भी होते हैं । - अभिप्राय यही है कि गाथा के अनुसार प्रभुता-सम्पत्र व्यक्तियों के लिए क्षमा-धर्म अपनाना दुष्कर होता है, किन्तु असंभव कदापि नहीं होता, अन्यथा बड़ेबड़े राजा, चक्रवर्ती एवं तीर्थंकर किस प्रकार क्षमा को धारण करके संसार-मुक्त होते ? अतएव प्रत्येक मुमुक्षु को सर्वप्रथम क्षमाधर्म अपनाना चाहिए तथा उसे अपनी अन्तरात्मा में रमाकर कर्मों की निर्जरा करने का प्रयत्न करना चाहिए। सुखोपभोगों के होते हए भी इच्छाओं का निरोधअभी हमने जिस गाथा को लिया है, उसमें तीसरी बात आई है कि घर में सुखोपभोगों के प्रचुर साधनों केहोते हुए इच्छाओं का रोकना अति दुष्कर है । ___ यह बात सत्य है। किसी दरिद्र व्यक्ति के पास तो भोग-सामग्री, उत्तम वस्त्राभूषण एवं सुस्वादु भोजन आदि पदार्थ न होने पर उसे विवश होकर अपनी इच्छाओं का निरोध करना ही पड़ता है, किन्तु जिसे ये सब उपलब्ध होते हैं, वह व्यक्ति अगर इनके प्रति निरासक्त रहता है तो उसका 'इच्छा-निरोध' यथार्थ कहलाता है। ___ शास्त्रों में दृढ़प्रतिज्ञ कुमार के विषय में वर्णन आता है कि वह अपार ऐश्वर्य के बीच में रहते हुए भी पूर्णतया विरक्त रहता था। उसके माता-पिता बहुत समझाते थे कि जब घर में सब वैभव-सामग्री मौजूद है तो फिर तू इनका उपभोग क्यों नहीं करता ? पर कुमार का हृदय वैराग्य-भावना से परिपूर्ण था अत. उसकी इच्छाएँ संयमित हो चुकी थीं। साधन होते हुए भी उनके प्रति आसक्ति न रखना भी बड़ा भारी तप है । शास्त्रकार कहते भी हैं - "इच्छानिराधस्तपः ।" अपनी इच्छाओं पर अंकुश रखना ही तप-मार्ग है । जो प्राणी ऐसा करता है वह सच्चे अर्थों में धर्मात्मा पुरुष कहला सकता है । रानी कलावती के विषय में भी एक कथा आती है, वह इस प्रकार है धर्म ने रक्षा की रानी कलावती के चार सौतें थीं। सबसे छोटी कलावती और सबसे बड़ी का नाम था लीलावती । राजा के लिए बड़े दुःख की बात थी कि पाँच रानियों के होते हुए भी उन्हें सन्तान की प्राप्ति नहीं हुई थी। सन्तान का न होना सांसारिक व्यक्तियों के लिए बड़े दुःख का कारण बनता है । कहते भी हैं अपुत्रस्य गृहम् शून्यम्, दिशा शून्याः अबांधवाः । मूर्खस्य हृदयं शून्यम्, सवशून्यम् दरिद्रता ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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