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________________ चार दुष्कर कार्य ३०७ पर बन्धुओ, धन-वैभव की दृष्टि से मानव दरिद्र अवश्य हो सकता है, किन्तु आत्मिक गुणों की दृष्टि से तो कोई भी दरिद्र नहीं होता। केवल उन गुणों के या आत्म-बल के जाग जाने की ही आवश्यकता होती है । दासी भी मनुष्य थी और उसकी आत्मा में भी बुद्धि एवं विवेकादि गुण निहित थे। सौभाग्यवश हन्टरों की मार खाते समय उसकी बुद्धि जाग्रत हुई और उस स्थिति में वह जोर से हँस पड़ी। उसको हँसते देख बादशाह एक दम आश्चर्य से अवाक रह गया और उसका हन्ट र रुक गया। मार खाकर रोने वालों को तो वह सदा देखा । करता था पर मार खाकर हँसने वाले को उसने उसी दिन देखा । परिणामस्वरूप बड़े आश्चर्य के साथ उसने सेविका से पूछ लिया-"बेवकुफ ! एक तो मेरी शैय्या पर सो जाने का तूने अपराध किया और ऊपर से हँस रही है ? किस लिए हँस रही है तू ?" दासी बड़ी शान्ति से बोली-“जहाँपनाह ! मुझे यह विचार कर हँसी आ गई कि मैं जीवन में केवल एक बार ही आपकी इस शैय्या पर सोई हूँ पर इतने से ही मुझे आपके द्वारा इस प्रकार हन्टर की मार खानी पड़ी । तो फिर हुजूर तो प्रतिदिन इस पर शयन करते हैं अत: आपको न जाने कितनी मार इसके लिए कभी न कभी खानी पड़ेगी।" दासी की बात सुनते ही बादशाह की बुद्धि ठिकाने पर आ गई। उसकी अत्यन्त सारगर्भित बात सुनकर उसे केवल दासी पर अत्याचार करने की बात का ही पश्चात्ताप नहीं हुआ, अपितु तब तक के जीवन में निरीह प्राणियों पर किये गये सम्पूर्ण अत्याचार चल-चित्र की भाँति मानस-चक्षुओं के सामने आने लगे। उसी क्षण हन्टर पृथ्वी पर गिर पड़ा और बादशाह ने अपने हृदय में क्षमाभाव को स्थान दिया । ___ कहने का अभिप्राय यही है कि समर्थ व्यक्ति के लिए भी क्षमा-भाव धारण करना कठिन अवश्य होता है, किन्तु असंभव नहीं होता। बादशाह प्रभुतासम्पन्न था और क्षमा क्या वस्तु होती है ? इसे कभी समझ नहीं पाया था। पर दासी की मर्मस्पर्शी एवं बुद्धिमानीपूर्ण बात सुनकर उसका विवेक जाग गया और क्षण भर में ही उसका अन्तर्मानस क्षमा से ओत-प्रोत हो गया। आज भी अनेक समर्थ एवं शक्ति-सम्पन्न व्यक्ति अपनी प्रभुता के कारण अभिमान में चूर रहते हैं और अपने अधीनस्थ या दीन व्यक्तियों को तिरस्कृत या अपमानित करते रहते हैं। किसी एक व्यक्ति के द्वारा कोई मन को चुभने वाली बात अगर सुनने को मिल जाय तो हजारों रुपये खर्च करके भी वे उसका मान-मर्दन करने से नहीं चूकते। किन्तु वे यह नहीं समझ पाते कि वैर-भाव, क्रोध या बदले की भावना आत्मा की विभाव अवस्था है और आत्मा को कालान्तर में दुःख पहुँचाती है । आत्मा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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