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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
तक तो माता के खिलाने पर खा पाता है, उसी के नहलाने-धुलाने पर शरीर की शुद्धि रहती है । तत्पश्चात् वह स्कूल में भेजा जाता है और उस समय पढ़ने-लिखने में तथा खेल-कूद में अपना समय व्यतीत करता है ।
इसके पश्चात् सत्रह वर्ष युवावस्था में वह संसार के सुखों का उपयोग करना चाहता है । विवाह होता है और पत्नी के घर में आने पर संतान का जन्म होता है । उस स्थिति में अगर वह कुछ कमाये नहीं तो माता-पिता कह देते हैं- "हमने तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा किया और विवाह कर दिया, अब अपने पत्नी और बच्चों का भरण-पोषण स्वयं करो।" अब उस स्थिति में मनुष्य कोल्हू के बैल की तरह खाने-कमाने में लगा रहता है और युवावस्था भी आकर चली जाती है। फिर आती है वृद्धावस्था । वृद्धावस्था के सोलह वर्ष मनुष्य के किस तरह व्यतीत होते हैं यह आँखों से देखते हैं । उस अवस्था में अनेक रोग शरीर में घर कर जाते हैं, शरीर में शक्ति नहीं रहती और ऊपर से घर के व्यक्ति अपमान तथा अनादर करते हैं । तो बुढ़ापे में जबकि शरीर ही नहीं संभलता, तो क्या धर्म-साधना हो सकती है ? नहीं, उस समय तो धर्माराधन के स्थान पर पश्चात्ताप ही हाथ आता है।
आश्चर्य तो इस बात का है कि लोग वृद्धावस्था के दुखों को अपनी आँखों से देखते हैं और भलीभाँति जानते हैं कि एक दिन हमें भी इसका शिकार होना पड़ेगा, फिर भी वे जो कुछ करना है, अपने शरीर के स्वस्थ रहते नहीं करते । उन्हें धर्म-साधना की फिक्र नहीं होती। फिक्र अगर होती है तो अधिक से अधिक जीने की। - एक उर्दू के शायर ने कहा भी है
हो उन खिज्र भी तो कहेंगे बवक्त मर्ग,
क्या हम रहे यहाँ अभी आये अभी चले ॥ यानी मानव हजारों वर्ष की उम्र प्राप्त कर ले, पर मरते समय यही कहेगा कि इस संसार में हम कुछ भी नहीं कर सके । वह जीने की अभिलाषा रखेगा और संसार के सुखों की हविस लिए रहेगा, किन्तु जीवन में धर्म-साधना कितनी की, इसकी चिन्ता नहीं करेगा।
पर ऐसे विचार रखना और सांसारिक सुखोपभोगों में ही जीवन व्यतीत कर देना आत्मा को धोखा देना और उसके साथ महान् अन्याय करना है। मानव-जन्म मनुष्य को इसीलिए मिला है कि इस जीवन के द्वारा वह अपनी आत्मा को कर्मों से मुक्त करे । चौरासी लाख योनियों में से मनुष्य योनि के अलावा और कोई भी योनि ऐसी नहीं है, जिसमें जीव को विशिष्ट विवेक और बुद्धि हासिल होती हो। ऐसी स्थिति में यदि मानव-योनि में आत्मा को जन्म-मरण के कष्टों से छड़ाने का प्रयत्न
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