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२६ | पौरुष थकेंगे फेरि पीछे कहा करि है ?
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
कल हमने जिससे बढ़कर और कोई श्रेष्ठ धर्म नहीं है ऐसे आर्य धर्म के विषय में विचार किया था। प्रत्येक मुमुक्षु को अपने शरीर के रहते समय मात्र का भी प्रमाद किये बिना धर्म-साधन कर लेना चाहिए। यह शरीर मोक्ष-प्राप्ति की साधना में माध्यम है । इसके अभाव में जप, तप, ध्यान, साधना आदि कुछ भी नहीं हो सकता । संस्कृत में कहा भी है
"शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् ।" धर्म साधना के लिए शरीर ही पहला कारण है ।
अतएव जब तक शरीर में शक्ति है तथा इन्द्रियाँ सजग हैं तब तक मनुष्य को इसका धर्म-साधन के रूप में पूरा लाभ उठा लेना चाहिए। क्योंकि कोई यह नहीं जान सकता कि यह शरीर कब नष्ट हो जाएगा, यानी मृत्यु किस समय आक्रमण कर बैठेगी।
भगवान महावीर ने इसी लिए गौतमस्वामी को चेतावनी दी थीकुसग्गे जह ओसबिंदुए,
थोवं चिट्ठइ लंबमाणए । एवं मणुयाण जोविअं, समयं गोयम ! पा पमायए ॥
-उत्तराध्ययन सूत्र, १०-२ अर्थात्-हे गौतम ! जिस प्रकार कुश के अग्र भाग पर पड़ा हुआ ओस का बिन्दु अत्यल्प समय तक ठहरता है, किसी भी समय उसका पतन हो सकता है, उसी प्रकार मनुष्य का जीवन भी किसी भी क्षण नष्ट हो सकता है, अतः क्षण भर भी प्रमाद न करो।
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