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________________ २६० आनन्द प्रवचन | छठा भाग कारण एक बार नहीं अपितु जीव को अनेक बार नाना प्रकार की देह धारण करनी पड़ती हैं और उन्हें छोड़ना पड़ता है। इसीलिये भगवान महावीर साधक को आदेश देते हैं कि वह संवर के मार्ग पर चले तथा उसमें आने वाले समस्त परिषहों को समभाव पूर्वक सहन करते हुए कर्मों की निर्जरा करे । ऐसा करने पर ही मानव-जन्म सार्थक हो सकता है। अन्यथा तो यह दुर्लभ जीवन मिला न मिला समान हो जाता है । अगर साधक इस जीवन में अपने लक्ष्य से चूक जाता है तो फिर न जाने कितने समय तक और चौरासी लाख योनियों में से कितनी योनियों में अनन्तकाल तक परिभ्रमण करता हुआ असह्य यातनाएँ भोगता रहता है । मनुष्य जन्म ही वह द्वार है जिसमें प्रवेश करके आत्मा शिवपुर पहुँच सकती है पर यह द्वार अगर हमने अपने विवेक के नेत्रों को बन्द करके छोड़ दिया तथा आगे बढ़ गये तो पुनः इसका मिलना कठिन हो जाता है। भले ही जीव यहाँ से स्वर्ग में क्यों न पहुँच जाय और वहाँ इन्द्रपद को भी क्यों न प्राप्त कर ले पर वह आत्मिक सुख को प्राप्त नहीं कर सकता तथा आत्मा को अपने शुद्ध स्वरूप में नहीं ला सकता। क्योंकि वहाँ पर केवल पूर्व-पुण्यों के फलस्वरूप वह इन्द्रियों के सुखों को प्राप्त करता है तथा अपार वैभव के बीच में रहकर अपने दिन व्यतीत करता है । पर स्वर्ग में वह आत्मा के लिए कुछ भी नहीं कर सकता । न वह वहाँ पर त्याग को अपना सकता है और न तप या साधना के द्वारा कर्मों को नष्ट ही कर पाता है । वहाँ का आयुष्य पूरा होते ही उसे पुनः चारों गतियों में भ्रमण करना पड़ता है। इसलिए स्वर्ग की अपेक्षा मानव-जीवन अधिक लाभकारी है और देवताओं की अपेक्षा साधना के मार्ग पर चलने वाला साधक अधिक सुखी है । श्री शुकदेव जी ने तो यहाँ तक कहा है इन्द्रोपि न सुखी तादृग्याग्भिक्षुस्तु निःस्पृहः । कोऽन्यः स्यादिह संसारे त्रिलोकी विभवे सति ॥ आशय यह है कि इस पृथ्वी पर निस्पृह एवं इच्छारहित भिक्षु जितना सुखी है, उतना इन्द्र भी सुखी नहीं है । प्रश्न होता है कि जब त्रिलोकी वैभव होने पर भी इन्द्र सुखी नहीं है तब और कौन हो सकता है ? उत्तर में कहते हैं -कामना और वासनारहित भिक्षु देवराज इन्द्र से भी बड़ा है क्योंकि वह सन्तुष्ट और सुखी है। आशा है आप समझ गये होंगे कि मानव-जीवन कितना अमूल्य है और अगर व्यक्ति चाहे तो इससे कितना लाभ उठा सकता है । जिस मोक्ष को स्वर्ग के देवता या इन्द्र भी प्राप्त नहीं कर पाते, उसे मनुष्य प्राप्त कर सकता है बशर्ते कि वह ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र-रूप धर्म की सम्यक् आराधना करे, संवर मार्ग पर चले तथा कर्मों की निर्जरा के प्रयत्न में लगा रहे । जो भव्य प्राणी ऐसा करेगा उसे अपने निर्दिष्ट लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य होगी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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