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आर्य धर्म का आचरण
२८९ बंधुओ, हमारा मूल विषय संवर को लेकर चल रहा है । संवर क्या है ? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद एवं कषायादि के निमित्त से आत्मा पर आगत नवीन कर्मों को रोकने वाला संवर चारित्र धर्म है। इसके सत्तावन प्रकार हैं और वे इस प्रकार हैं-पाँच समिति, तीन गुप्ति, दस यतिधर्म बाईस परिषह, बारह भावनाएँ एवं पांच चारित्र ।
जो साधक इनका भली-भाँति ध्यान रखता है वही संवर के मार्ग पर उत्तरोत्तर बढ़ता है। जब तक नवीन कर्मों का आगमन अवरुद्ध नहीं होता तब तक मुक्ति प्राप्ति की अभिलाषा भी पूर्ण नहीं होती । सच्चा मुमुक्षु एक तरफ तो नवीन कर्मों के आगमन को रोकता है और दूसरी तरफ आत्मा से आबद्ध पूर्व कर्मों की भी बारह प्रकार के तपाराधन द्वारा निर्जरा करता है। इसीलिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप को मोक्ष का मार्ग माना गया है ।
इस मार्ग पर जो साधक दृढ़ कदमों से चल पड़ता है वही अन्धकार से प्रकाश की ओर, असत्य से सत्य की ओर तथा मत्यु से अमरत्व की ओर बढ़ता है । ऐसा साधक ही अपनी आत्मा में झाँकता है तथा उसे आत्मा से परमात्मा बनाने के प्रयत्न में रहता है। उर्दू भाषा के शायर जोक ने कहा है
देख, गर देखना है 'जोक' कि वह परदानशीं ।
दीदये रौशने-दिल से है दिखाई देता। अगर तू उस पर्दानशीन ईश्वर को देखना चाहता है तो उसे मानस-चक्षुओं से देखने की कोशिश कर, क्योंकि चर्म-चक्षुओं से वह दिखाई नहीं दे सकता ।
कहने का अभिप्राय यही है कि साधक को बाह्य संसार की उपेक्षा करके अपनी आत्मा के सद्गुणों को विकसित करने का प्रयत्न करना चाहिए तथा उसमें रहे हुए समस्त दोषों को कचरा मानकर अविलम्ब बाहर फेंक देना चाहिए। ऐसा करने पर ही आत्मा अपने शुद्ध एवं परम ज्योतिर्मान स्वरूप को प्राप्त कर सकती है तथा परमात्म पद पर आसीन हो सकती है। पर यह हो तभी सकता है जबकि आत्मिक दोषों को साधक विष समझकर उनका त्याग कर दे।
आप अपने घर में अगर साँप-बिच्छ को आया हुआ देखते हैं तो अविलम्ब उसे पकड़कर बाहर छोड़ आते हैं। ऐसा क्यों ? इसलिए कि उनके कारण आपको अपने शरीर-नाश का भय मालूम देता है। किन्तु क्रोध, मान, माया एवं लोभादि कषाय क्या एक जन्म के शरीर को नष्ट करने वाले जहरीले जन्तुओं से कम हैं ? नहीं, कषाय-रूप विषधर तो आपके अनेक जन्म-मरण के कारण बनते हैं । उनके
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