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________________ २८८ आनन्द प्रवचन | छठा भाग दर्शन, चारित्र्य, शांति, संतोष एवं शक्ति रूपी अक्षय धन में भंडार की खोज नहीं करता और उसको उपयोग में नहीं लाता। परिणाम यह होता है कि वह दही का त्याग कर पानी को मथने वाले के समान, आँखों के समक्ष सुस्वादु व्यंजनों से भरे हुए थाल को छोड़कर भीख माँगने वाले के समान और नाभि में कस्तूरी रहने पर भी वन में चारों ओर उसकी सुगंध को प्राप्त करने के लिए दौड़ते रहने वाले हिरण के समान सदा निरर्थक प्रयत्न करता रहता है और अन्त में घोर पश्चात्ताप करता हुआ मृत्यु को प्राप्त होता है । तो बंधुओ, अगर हमें संसार से मुक्त होना है तो धर्म के ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र्य रूपी तीनों प्रकारों को अपनाना होगा। ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है, क्योंकि इसके अभाव में हमारी क्रियाएँ निरर्थक हो जाएँगी और ज्ञान प्राप्त करने पर उसे जीवन में भी उतरना होगा, अन्यथा ज्ञान व्यर्थ चला जाएगा । कहा भी जाता है- "ज्ञानं भारः क्रियां बिना।" जीव की मुक्ति तभी हो सकती है जबकि ज्ञान और क्रिया का वह अपने जीवन में समन्वय करेगा। केवल ज्ञान ही आत्मा को मोक्ष में पहुंचा दे यह कभी सम्भव नहीं है । मनुष्य की कथनी और करनी एक होनी चाहिए । इनका सुमेल ही आत्मा को भव-बन्धनों से छुटकारा दिला सकता है । चारित्र का महत्व बताते हुए कहते हैं- "हयं गाणं किया हीणं ।" क्रियाहीन व्यक्ति का ज्ञान नष्ट हुआ ही समझना चाहिए । वस्तुतः ज्ञान के द्वारा संसार-सागर को पार करने के उपाय तो जाने जा सकते हैं किन्तु उससे पार होना चारित्र के द्वारा ही सम्भव है । यह दृढ़ सत्य है कि चारित्र के बिना आज तक न कोई जीव मोक्ष में गया है और न ही कभी जाएगा। हमारा जैनदर्शन रूप, रंग, जाति, कुल, धन, बल आदि किसी भी चीज को महत्त्व नहीं देता है वह केवल चारित्र की महानता स्वीकार करता है। उदाहरण स्वरूप-हरिकेशी मुनि का जन्म निम्न कुल में हुआ था । न उनके पास शारीरिक सौन्दर्य था और न ही धन, मकान या किसी प्रकार का आदर-सम्मान । वे अपने जीवन में सदा लोगों से तिरस्कार ही पाते रहे और तंग आकर आत्महत्या करने पर उतारू हो गए। किन्तु उस विकट समय में उन्हें पंच महाव्रतधारी संत का सुयोग प्राप्त हुआ और उनकी वाणी के प्रभाव से मरने का विचार छोड़कर वे संयमी बन गये । उनका शुद्ध चारित्र एवं घोर साधना उनके लिए नाना लब्धियाँ प्राप्त करने में सहायक बने। देवता भी जिनके अधीन हो गया ऐसे चारित्रचूड़ामणि हरिकेशी मुनि के विषय में 'श्री उत्तराध्ययन सूत्र' के बारहवें अध्याय में विस्तृत वर्णन किया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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