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________________ आर्य धर्म का आचरण २८७ वस्तुतः बाहर का धन क्षणभंगुर है तथा किसी भी समय छूटने वाला है। आज हम देखते हैं कि संसार के अधिकांश व्यक्ति आत्मा के संतोष, शांति एवं शक्ति रूपी धन की उपेक्षा करते हुए बाह्य धन जो जड़ द्रव्य है, उसके संग्रह में बावले बने रहते हैं । वे धन के लिये बेईमानी करते हैं, अनीति पर उतर आते हैं और सगे पिता, भाई या अन्य किसी को भी धोखा देने के प्रयत्न में लगे रहते हैं। उनका सारा पुरुषार्थ ही धन-संचय में लग जाता है । पर वह धन आखिर उनके क्या काम आता है ? केवल पेट भरने और लज्जा ढकने के लिये वस्त्र पहनने में खर्च होने वाला ही तो उनके उपयोग में आता हैं । उससे अधिक अगर होता है तो वह या तो किसी के द्वारा छीन लिया जाता है और नहीं तो मरने पर स्वयं ही यहीं छूट जाता है । धन जाने के इस संसार में अनेक बहाने होते हैं और किसी भी बहाने को लेकर बह व्यक्ति से पृथक् हो सकता है । इसीलिए संत-पुरुष धन की निन्दा करते हुए कहते हैं दायादाः स्पृहयन्ति तस्करगणा मृष्णन्ति भूमीभुजो, गृह्णन्तिच्छलमाकलय्य हुतभुग भस्मीकरोति क्षणात् । अम्भः प्लावयति क्षितौ विनिहतं यक्षा हरन्ते हठाद्, दुर्वत्तास्तनया नयन्ति निधनं धिग् बह्वधीनं धनम् ॥ -सिन्दूर प्रकरण ७४ कहा गया है कि इस धन की जाति वाले स्पृहा करते हैं, चोर चुरा लेते हैं, छल के द्वारा राज छीन लेते हैं, अग्नि भस्म कर देती है, पानी बहा देता है, जमीन में गाड़कर रखने से यक्ष हर लेते हैं तथा इन सबसे बचा तो दुराचारी पुत्र इसे उड़ा देते हैं । अतः बहुतों के अधीन रहने वाले इस धन को धिक्कार है । वस्तुतः इस जड़ द्रव्य से मानव को कोई लाभ नहीं हो पाता । इसके द्वारा भौतिक सुख प्राप्त किया जा सकता है पर आत्मिक सुख हासिल नहीं होता । धन से से मनुष्य मन्दिर, मसजिद एवं गिरजाघर बनवा सकता है, पर भगवान को नहीं पा सकता, सुन्दर नर्म शैय्या का निर्माण करा सकता है किन्तु सुख-निद्रा नहीं खरीद सकता, खुशामदी एवं चापलूस व्यक्तियों की मण्डली जुटा सकता है पर हितैषी नहीं खोज सकता, मान प्राप्त कर सकता है पर आदर और श्रद्धा का अनुभव नहीं कर सकता । अनेक शास्त्र भंडार एवं पुस्तकालय भर सकता है किन्तु ज्ञान का अर्जन नहीं कर सकता। इस धन के कारण केवल लड़ाई-झगड़ा और वैमनस्य ही होता है संतोषलाभ नहीं। इसीलिए कविश्री ने अपने पद्य में कहा है कि मानव मूर्ख के समान बाह्यधन की प्राप्ति और उसके संग्रह में जुटा रहता है, पर अपनी आत्मा में रहे हुए ज्ञान, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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