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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
किन्तु क्या भगवान आपको इस प्रकार पार करेंगे ? नहीं, संसार-सागर को पार करने के लिये तो आपको स्वयं ही हाथ-पैर मारने पड़ेंगे, स्वयं ही पुरुषार्थ करना पड़ेगा । स्वयं तीर्थंकरों को भी संसार के संपूर्ण सुखों को त्याग करके साधना करनी पड़ी थी और वर्षों तक तपस्या में रत रहना पड़ा था। फिर आप और हम तो क्या चीज हैं ? अपने कर्मों को नष्ट करने के लिये जब उन्हें भी घोर प्रयत्न करना पड़ा तो फिर हमारे पूर्वकृत कर्मों को कोई अन्य कैसे काट सकता है। उन्हें तो हमें भोगना ही पड़ेगा। श्री उत्तराध्ययन सूत्र में कहा भी है
सकम्मुणा किच्चइ पावकारी
कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि । -पापात्मा अपने ही कर्मों से पीड़ित होता है क्योंकि कृत-कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं है। ___तो बंधुओ, जो विचारशील साधक होता है वह अपने ऊपर आए हुए परिषहों को पूर्व कर्मों का परिणाम समझ कर समता से सहन करता है और संवर के मार्ग पर चलकर नवीन कर्मों से बचता है। ऐसा साधक ज्ञान हासिल करता है और उसे अपने जीवन में भी उतारता है । वह भली-भांति समझ लेता है कि कर्मों से मुक्ति प्राप्त करने के लिये मुझे अपनी आत्मा को ही सशक्त बनाना होगा तथा इसे अपने शुद्ध स्वरूप में लाने के लिये प्रयत्न भी स्वयं ही करना पड़ेगा। वह विचार करता है कि मक्ति के लिये बाहर के साधनों को उपयोग में लाना या बाहर भटकते फिरना वृथा है । समभाव, शांति, शक्ति एवं सुख का अथाह सागर तो मेरी आत्मा के अंदर ही है। पूज्यपाद श्री अमीऋषि जी म० ने भी मनुष्य को चेतावनी देते हुए कहा है
घट ही में तेरे धन भरयो है अखूट नर,
ताकू नहीं खोजे शठ बाहिर फिरत है । दही दूर तजी भरी पानी को मथाए अति,
होवे देह दुख पण काज न सरत है ॥ भोजन को थाल छोड़, मांगे भीख घर-घर,
। ऐसो मूढ़ भूल भ्रम मन में धरत है। अमीरिख कहे मृग नाभि में सुवास होय,
ताही न लखत वन दौड़ के मरत है। कवि का कथन है-अरे मूर्ख व्यक्ति ! तू धन के लिये बाहर दौड़ता फिरता है, यह नहीं जानता कि अक्षय धन का कोश तो तेरे अन्तर में ही भरा हुआ है।
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