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________________ आर्य धर्म का आचरण २८५ भारी संकट में पड़ जाएंगे। पर सेठजी पत्नी की बात को इस कान से सुनकर उस कान से निकाल देते थे। वे इतने प्रमादी हो गए थे कि भोजन करते समय ग्रास भी उनके मुंह में सेठानी ही देती थी। एक बार सेठानी ने हलुआ बनाया और लाकर सेठजी को खिलाया । पर हलुआ खाते-खाते सेठजी को पसीना हो आया । सेठानी कुछ घबराकर बोली"आपको तो पसीना-पसीना हो रहा है । कुछ तकलीफ है क्या ?" सेठजी ने उत्तर दिया-"तुमने हलुआ बनाया, परोसकर लाई और मेरे मुंह में खिलाया। रोज इसी प्रकार भोजन कराती भी हो, किन्तु चबाना तो आखिर मुझे ही पड़ता है न ?" सेठानी बेचारी क्या बोलती ? यही कह सकी-"अब इतना तो आपको करना ही पड़ेगा। पर मुझे बहुत दुःख है कि आपसे इतना परिश्रम भी नहीं हो पाता है।" तो बंधुओ ! संत महात्मा भी आपको धर्म का स्वरूप समझा देते हैं तथा धर्म के सार ज्ञान को और ज्ञान के सार चारित्र्य को भी विभिन्न प्रकार से विवेचना करके बता देते हैं । मोक्ष की प्राप्ति में सहायक साधना की विधियाँ और मन को काबू में रखने के उपाय भी आपके सामने रख देते हैं । किन्तु इन सबको जीवन में उतारना तो आपको स्वयं ही पड़ेगा। महापुरुष आपको मार्ग बता सकते हैं किन्तु उठाकर मोक्ष में नहीं बैठा सकते । इसलिये आपको संत-महात्माओं के अथवा गुरुओं के भरोसे पर नहीं रहना चाहिये । आप सोचें कि हमने सामायिक कर ली, और दो घंटे बैठकर महाराज का उपदेश सुन लिया तो अब और कुछ करने को नहीं रहा, यह विचार सर्वथा गलत है । महाराज आपको मार्ग बताते हैं, परंतु चलना तो आपको ही पड़ेगा अन्यथा साधना-मार्ग पर आप एक कदम भी नहीं बढ़ सकेंगे। आप अपनी प्रशंसा करते हुए प्रायः कहते हैं- "महाराज ! हमने जीवन में बड़े-बड़े संतों के उपदेश सुने हैं और हमारे गुरु बहुत ही विद्वान एवं चारित्रशील हैं।" । पर मेरे भाइयो ! आपके गुरु के विद्वान, चारित्रशील या सच्चे साधक होने से आपको क्या लाभ होगा? उनके गुणों का और उनकी साधना का लाभ तो उन्हें ही मिलेगा। आपको उसमें रत्ती मात्र भी हिस्सा नहीं मिल सकेगा। आपको केवल वही मिलेगा जो आप अपने प्रयत्न से उपार्जित करेंगे। इस लिये अपने बुजुर्गों की या अपने गुरुओं की प्रशंसा करके अपने को गौरवान्वित करना व्यर्थ है। अगर आपको गौरवशाली बनना है तो आप स्वयं प्रयत्न करो। भले ही आप थोड़ा पढ़ो, थोड़ा सुनो और निरंतर संतों के दर्शन में न पड़ो। किन्तु थोड़ा सुना और पढ़ा हुआ भी जीवन में लाने का प्रयत्न करो। इसके बिना आत्म-कल्याण संभव नहीं है। अनेकों व्यक्ति भगवान से प्रार्थना करते हैं-''हे प्रभो ! मुझे इस संसार-सागर से पार उतार दो।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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