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________________ २८४ आनन्द प्रवचन | छठा भाग अपने पाठ भली-भाँति सुना दिये । पर युधिष्ठिर चुपचाप अपने स्थान पर बैठे रहे । इस पर धृतराष्ट्र ने पूछा - "तुम सबमें मुझे युधिष्ठिर की आवाज सुनाई नहीं दी, क्या वह यहाँ नहीं है ?" इस पर युधिष्ठिर तुरन्त धृतराष्ट्र के समीप आये और लज्जित होते हुए बोले – “मुझे तो अभी पहला पाठ ही आधा याद हुआ है ।" इस पर धृतराष्ट्र बड़ी खिन्नतापूर्वक उपालम्भ देते हुए बोले – “तुम अपने सब भाइयों में बड़े हो पर अभी तक तुमने पहला पाठ भी पूरा याद नहीं किया । बड़े आश्चर्य की बात है । क्या तुम्हें पाठ याद नहीं होता ?" अब युधिष्ठिर ने कहा - " मुझे जबान से तो पाठ कभी का याद हो गया है किन्तु उसे मैं याद हुआ नहीं मानता क्यों कि मैं उसे आचरण में लाकर पक्का करना चाहता हूँ । कुछ दिन पहले जब गुरुदेव ने पाठ न सुनाने पर मुझे चांटा मारा था तब उसके कारण मुझे तनिक भी रोष नहीं आया और न ही मन खिन्न हुआ । तब मैंने समझा था कि मुझे आधा पाठ तो याद हो गया है । इसी प्रकार जब मैं सत्य को पूर्णतया अपना लूंगा, तब समझँगा कि मुझे पूरा पाठ याद हुआ है ।" युधिष्ठिर की बात सुनकर उनके गुरु द्रोणाचार्य तथा धृतराष्ट्र अवाक् रह से याद किया हुआ ज्ञान अधूरा रहता जबकि उसे जीवन में भी उतार लिया गये और समझ गये कि वास्तव में ही जबान है और वह तभी पूरा माना जा सकता है, जाय । तो बंधुओं, ज्ञान के साथ ही चारित्र का होना आवश्यक है। ध्यान में रखने की बात है कि ज्ञान तो धर्म-ग्रन्थों के द्वारा, शास्त्रों के द्वारा और गुरुओं के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है । किन्तु उसे आचरण में लाना स्वयं ज्ञानी के प्रयत्न से ही संभव होता है | चारित्र या आचरण किसी और से नहीं लिया जा सकता अपितु स्वयं के अभ्यास से बनता है । आलस्य या प्रमाद चारित्र के शत्रु हैं और वे मनुष्य को निकम्मा बना देते हैं । कहा जाता है कि एक सेठ बड़े सम्पत्तिशाली थे । उनके पूर्वज बड़े प्रयत्न से धन इकट्ठा कर गये थे और बड़ी भारी दुकान उनके लिये छोड़ गये थे । किन्तु सेठजी महान् प्रमादी थे । वे दुकान पर जाना और हिसाब-किताब देखना बड़ा कष्टकर मानते थे अतः मुनीम-गुमास्तों पर ही सारा काम छोड़ बैठे थे । खाना, आराम करना और सोना, इसके अलावा उनसे कुछ भी कार्य नहीं होता था । सेठानी बड़ी पतिपरायणा एवं साध्वी स्त्री थी । उसने अनेक बार सेठजी को समझाया कि अगर आप स्वयं अपने व्यवसाय की देख-रेख नहीं करेंगे तो हम कभी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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