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आर्य धर्म का आचरण
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समीप भी नहीं फटकने देगा। जीव के अनादिकालीन दुःख, संताप और पीड़ा को सम्यक् चारित्र के माध्यम से ही समाप्त किया जा सकता है। सब कुछ व्यक्ति ने जान लिया और मान भी लिया, किन्तु पालन अगर नहीं किया तो वह जानना और मानना नहीं के समान है । रोगी डॉक्टर से अपने रोग का निदान करवा लेता है तथा औषधि भी लिखवा लेता है। किन्तु घर पर आकर अगर वह सारे दिन केवल नुसखा पढ़ता रहे और दवा का सेवन न करे तो क्या उसका रोग दूर हो सकता है ? नहीं, केवल औषधि का नाम जान लेने से वह कमी स्वस्थ नहीं हो सकता।
कहने का अभिप्राय यही है कि ज्ञान के साथ-साथ अगर आचरण उसके अनुसार न किया तो ज्ञान व्यर्थ है। इन दोनों के संयोग से ही मनुष्य संसार-सागर को पार कर सकता है, अन्यथा नहीं । कहा भी है
चरणगुणविप्पहीणो, बुड्डइ सुबहंपि नाणंतो। अर्थात्-जो साधक चारित्र के गुण से रहित है, वह अनेक शास्त्र पढ़ लेने पर भी संसार-समुद्र में डूब जाता है।
अभी पाठ याद नहीं हुआ गुरु द्रोणाचार्य कौरवों तथा पांडवों को शस्त्र कला तथा शास्त्र कला, सभी का अध्ययन कराया करते थे। एक बार उन्होंने शिष्यों को पाठ देते समय तीन सूत्र याद करने के लिए दिये । वे थे-"सत्यं वद ।" "क्षमां चर।" "विनयं आचर।"
सब शिष्यों ने उन्हें याद कर लिया और अगले दिन गुरुजी को तीनों बातें सुना दीं । केवल युधिष्ठिर चुप रहे और उन्होंने पाठ नहीं सुनाया।
इस पर गुरु ने पूछा- "युधिष्ठिर ! तुम सब छात्रों से बड़े हो और तुम्हीं ने पाठ याद नहीं किया ?"
"नहीं आचार्य, अभी मुझे पाठ याद नहीं हो सका।” युधिष्ठिर ने बड़ी शान्ति और विनयपूर्वक उत्तर दिया। इसके पश्चात् कई दिन व्यतीत हो गये और प्रतिदिन गुरु के द्वारा पूछे जाने पर युधिष्ठिर कहते रहे- "अभी तक मुझे पाठ याद नहीं हो सका।"
एक दिन युधिष्ठिर के इस उत्तर पर द्रोणाचार्य का क्रोध सीमा पार कर चुका और उन्होंने कुपित होकर युधिष्ठिर के गाल पर बड़े जोर से चाँटा लगा दिया । युधिष्ठिर ने बड़ी शान्ति से चाँटा खा लिया और अपने स्थान पर जा बैठे।
इसके कुछ दिन पश्चात् एक बार धृतराष्ट्र बच्चों की परीक्षा लेने के लिए पाठशाला में आए । उन्होंने छात्रों से पाठ सुनने चाहे और इस पर सभी ने अपने
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