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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
करने वालों पर निर्भर है । अगर उन्होंने पूर्ण श्रद्धा से मन्त्र ग्रहण किया है तो वे तुम्हारे भक्त सद्गति को प्राप्त कर सकेंगे।"
यह बात सुनकर तो रामानुज का चेहरा पुनः प्रफुल्लित हो गया और वे अपने गुरु के समक्ष हाथ जोडकर बोले-“गुरुदेव ! तब तो मुझे आपके द्वारा प्रदत्त मन्त्र का रहस्य औरों को बताने का कोई दुःख नहीं है। मेरे बताए हुए मंत्र से अगर उन सबकी सद्गति होगी तो केवल मेरी दुर्गति के लिए मुझे तनिक भी चिन्ता नहीं है।"
गुरुजी अपने शिष्य की बात सुनकर अवाक् रह गए और उन्होंने हृदय से अपने देवता स्वरूप शिष्य को धन्य-धन्य कहा ।
ये उदाहरण मनुष्य में रहने वाली देवी वृत्ति के परिचायक हैं और ये बताते हैं कि इस वृत्ति वाले पुरुष किस प्रकार अपना अहित करके भी औरों का हितचिन्तन करते हैं । रामानुज जैसे संत ने अपने भक्तों की सद्गति की खुशी में जब अपनी स्वयं की दुर्गति की भी परवाह नहीं की, जिसके कारण न जाने कितने काल तक नाना कष्ट उठाने पड़ते हैं तो फिर धन की तो बात ही क्या है ? जिसके लिए वे मेरा-मेरा कहकर औरों के पेट पर लात मारें। देवीवृत्ति वाले महामानव तो अपना सर्वस्व ही औरों को देने के लिए तैयार रहते हैं । उनके हृदय में अपनी अधिकृत किसी भी वस्तु के लिए ममत्व नहीं होता और इसीलिए वे-'तेरा सो तेरा मेरा भी तेरा' -यह कहते हैं । (४) ब्रह्मवृत्ति
बन्धुओ, ध्यान में रखने की बात है कि देवी वृत्ति वाले मनुष्य अपना भी औरों को देते हैं, किन्तु इतना जरूर कहते हैं कि 'मेरा सो भी तेरा है।' अर्थात्वे मेरे और तेरे में अन्तर जरूर समझते हैं पर ब्रह्मवृत्ति वाले व्यक्ति में तो मेरे और तेरे की भावना ही नहीं रहती। उसके पवित्र मानस में ज्ञान की दिव्य ज्योति जल जाती है तथा उसके प्रकाश में उसे कोई पराया नहीं दिखाई देता। वह सभी की आत्मा में परमात्मा का अंश देखता है, दूसरे शब्दों में सभी आत्माओं को परमात्मा का ही रूप मानता है।
कहा जाता है कि संत एकनाथ जी ऐसी ही ब्रह्मवृत्ति के स्वामी थे। एक बार वे अपने लिए रोटियां सेक रहे थे कि एक कुत्ता उनकी कुछ रोटियाँ मुंह में लेकर भागने लगा।
जब एकनाथ जी ने यह देखा तो वे घी की कटोरी लेकर उस कुत्ते के पीछे दौड़ते हुए बोले
_ "अरे भगवन् ! रूखी रोटियाँ लेकर मत जाइये, उन्हें चुपड़ तो देने दीगिये।"
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