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अस्नान व्रत
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तो नहीं था । पर आंगन में एक गाय अपने बछड़े के साथ बंधी थी । चोर ने सोचा - " और कुछ नहीं है तो चलो गाय ही ले जाऊँ ।” संस्कृत में कहते भी हैं - " पलायमान चोरस्य कंथा एव लाभ: ।"
भागते हुए चोर को अगर कथड़ी भी मिल जाय तो उसे वह लाभ मानता है । फिर तुकाराम के यहाँ तो गाय थी । अतः चोर बड़ी सावधानी से उसे खूंटे से खोलकर ले चला । बछड़ा वहीं बंधा था । अतः अब तुकाराम से नहीं रहा गया और वे चोर को सम्बोधित करते हुए बोल पड़े
"अरे भाई ! अकेली गाय क्या लिये जा रहा है ? इसके साथ बछड़ा भी ले जा ।"
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चोर ने ज्योंही संत के वचन सुने, वह पानी-पानी हो गया । सोचने लगा"क्या संसार में ऐसे देव- पुरुष भी होते हैं, जो एक चीज ले जाने पर कहें कि दूसरी भी ले जा ?" अत्यन्त शर्मिन्दा होकर उसने संत तुकाराम से अपनी चौर्यवृत्ति के लिये क्षमा मांगी । किन्तु तुकाराम ने जबरन वह गाय और बछड़ा उसके साथ कर दिया ।
देव वृत्ति को बताने वाला एक और भी बड़ा सुन्दर उदाहरण है । वह इस प्रकार है
संत रामानुज जब अपने गुरु से अध्ययन समाप्त कर चुके तो गुरु ने उन्हें एक मन्त्र और दिया तथा कहा - " इस मन्त्र का रहस्य कभी मत बताना ।"
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अपनी दुर्गति की चिन्ता नहीं है
अन्त में उनके किसी और को
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पर रामानुज बड़े उदार एवं संसार के समस्त प्राणियों के हितचिंतक थे । उन्होंने मन्त्र की महत्ता का ध्यान तो रखा पर अपने योग्य भक्तों को यंज-दीक्षा देकर मन्त्र का रहस्य बता दिया ।
जब रामानुज के गुरुजी को इस बात का पता चला तो वे अन्यन्त कुपित हुए और उन्हें बुरी तरह से फटकारते हुए बोले – “तुमने आखिर मेरा कहना नहीं माना ? परिणामस्वरूप तुम्हें दुर्गति में जाना पड़ेगा और वहाँ की यातनाएँ भोगनी होंगी ।" रामानुज पर तो मानो पाला ही पड़ गया। गुरु के क्रोधित हो जाने पर उन्हें अपार व्यथा हुई और वे अत्यन्त बुझे हुए स्वर में बोले – “भगवन् ! मेरी बड़ी भारी मूल हुई कि मैं आपकी आज्ञा का पालन नहीं कर सका । किन्तु कृपया आप मुझे यह बताइये कि मैंने जिन व्यक्तियों को उस मन्त्र की दीक्षा दी है और उसका रहस्य समझाया है, क्या वे भी दुर्गति को प्राप्त होंगे ?"
गुरुजी ने कुछ क्षण विचार किया और फिर उत्तर दिया – “यह मन्त्र ग्रहण
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