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________________ अस्नान व्रत २७७ कई बार एकनाथ जी के साथ कुत्ते खाने के लिए भी बैठ जाते थे क्योंकि वे उन्हें भगाते नहीं थे । लोग जब इस दृश्य को देखते तो हँस पड़ते थे। यह देखकर एकनाथ जी चकित होते और लोगों से कहते- "भगवन् ! हंसते क्यों हैं ? भगवान, भगवान के साथ खा रहा है, इसमें भला हँसने की कौनसी बात है ?" तो ब्रह्मवृत्ति वाले महापुरुष किसी को भी अपने से हीन नहीं समझते। वे मानते हैं कि कीड़ी से लेकर कुंजर यानी हाथी के अन्दर तक भी एक सी अनन्त शक्तिशाली आत्माएँ हैं । कोई भी आत्मा कम या अधिक महत्व नहीं रखती । केवल पूर्व कर्मों के कारण ही उन्हें भिन्न-भिन्न योनियों में जाना पड़ता है और भिन्न-भिन्न प्रकार के आकारों में कैद रहना पड़ता है। इसलिए वे किसी प्राणी का अपमान नहीं करते तथा सभी पर समान प्रेम एवं करुणा का भाव रखते हैं । वे सदा यही भावना अपने अन्तर में बनाये रखते हैं कि अगर आत्मा का कल्याण करना है तो भगवान के आदेशों का पालन करना पड़ेगा और श्रेष्ठ आर्य धर्म को स्वीकार करके जीवन के अन्त तक उसे दृढ़तापूर्वक निभाना पड़ेगा। यद्यपि धर्म का पालन करने में अनेकों बाधाएं, विघ्न और परिषह आते हैं किन्तु जब शरीर पर से ममत्व हटा लिया जाता है तो उन्हें सहन करना कठिन नहीं होता। सारे परिषह शरीर को ही कष्ट पहुँचाते हैं, आत्मा को उनसे कोई हानि नहीं होती। उल्टे परिषहों को समतापूर्वक सहन करने से आत्मा की शक्ति जाग्रत होती है। हमारे प्रवचन में भी 'जल्ल परिषह' का वर्णन चल रहा है। इसके लिए विवेकी और शक्तिशाली संत सोचते हैं कि जब साधना को समीचीन रूप से चलाने के लिए गजसुकुमाल जैसे बाल मुनि कुछ क्षणों में ही यह देह त्याग देने की दृढ़ता रखते हैं तो शरीर पर पसीने का आ जाना और उस पर मल का जम जाना क्या महत्व रखता है ? यह शरीर तो एक दिन जाना ही है चाहे इसे धो-धोकर साफ करते रहो या फिर जैसी भी स्थिति में रहता है, रहने दो। दशवैकालिक सूत्र के छठे अध्याय में कहा गया है ___ तम्हा ते न सिणायंति, सीएण उसियेण वा । जावज्जीवं वयं घोरं असिणाणमहिठ्ठगा ॥ गाथा में संत-मुनिराजों के लिए कहा गया है कि वे कभी भी उष्ण या शीतल जल से स्नान नहीं करते तथा जीवनभर इस घोर व्रत का पालन करते हैं। यद्यपि शरीर पर पानी का पड़ जाना या न पड़ना महत्व नहीं रखता, महत्व मन की वृत्ति का होता है । हम देखते हैं कि किसी पतिव्रता स्त्री का पति अगर परदेश में चला जाता है तो उसे अच्छे वस्त्र पहनना, आभूषण धारण करना या इत्र-फुलेल आदि लगाना अच्छा नहीं लगता। यानी शरीर का शृंगार करना उसे प्रिय नहीं लगता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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