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________________ आनन्द प्रवचन | छठा भाग निरोग रहना आवश्यक है। अगर शरीर स्वस्थ न रहे तो व्यक्ति किस प्रकार सामायिक, प्रतिक्रमण, ध्यान, स्वाध्याय जप एवं तप कर सकता है ? ये सभी कार्य स्वस्थ शरीर के द्वारा ही हो सकते हैं । शरीर ही तो इन सबका माध्यम है । कहा भी है धर्मार्थकाममोक्षाणां, मूलमुक्त कलेवरम् । धर्म का, धन का, विविध इच्छाओं का और मोक्ष का साधन यह शरीर ही है। हमारे शास्त्रकार कहते हैं कि मनुष्य के शरीर में साढ़े तीन करोड़ रोमरंध्र हैं और प्रत्येक रोम के मूल में पौने दो के हिसाब से रोग पाये जाते हैं। इस प्रकार साढ़े पांच करोड़ से भी अधिक रोग शरीर को रोगी और निर्बल बनाने के लिए तैयार रहते हैं। आज के समय में हम देखते हैं कि प्रत्येक गाँव और शहर के हॉस्पीटल रोगियों से भरे रहते हैं। तो ऐसे काल में शरीर का रोगमुक्त रहना और उससे धर्म-साधन करना कितना कठिन और सौभाग्य का सूचक होता है। पर वह तभी होता है जबकि पिछला पुण्य पल्ले में हो और आज भी व्यक्ति धर्म के मार्ग पर चले । मनुष्य को यह कभी नहीं सोचना चाहिए कि शरीर को अनेक कष्ट पहुँचा कर सत्कार्य या पुण्य-कार्य करने से क्या लाभ है ? क्योंकि उनका फल तो न जाने कौन से अगले जन्म में मिल पाएगा और कब वह जन्म हमें प्राप्त होगा। यथार्थ बात तो यह है कि शुभ-कर्म अगले जन्म में तो शुभ-फल प्रदान करते ही हैं, इस जन्म में भी अपना फल प्रदान करने से नहीं चूकते । हमारे स्थानांग सूत्र में स्पष्ट बताया गया हैइह लोगे सुचिन्ना कम्मा, इह लोगे सुहफलविवाग संजुत्ता भवंति । इह लोगे सुचिन्ना कम्मा, पर लोगे सुहफलविवाग संजुत्ता भवंति । अर्थात्-इस जीवन में किये हुए सत्कर्म इस जीवन में भी सुखदायी होते हैं तथा इस जीवन में किये हुए सत्कर्म अगले जीवन में भी सुखदायी होते हैं। कहने का अभिप्राय यही है कि व्यक्ति को यथाशक्ति धर्माराधन करना चाहिए और कभी भी धर्म-मार्ग से उन्मुख नहीं होना चाहिए। अगर वह धर्म पर दृढ़ आस्था रखता हुआ अपने जीवन को धर्ममय बनाए रखता है तो उसका सबसे पहला फल तो शरीर की स्वस्थता के रूप में इसी जन्म में मिलेगा, इसमें सन्देह नहीं है। यही बात संस्कृत के श्लोक में भी कही गई है कि धर्म के द्वारा निश्चय ही प्राप्त होने वाला सर्वश्रेष्ठ और सर्व-प्रथम सुख आरोग्य है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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