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________________ धर्मो रक्षति रक्षितः १७ २. दूसरा सुख घर में माया 'पहला सुख निरोगी काया, दूसरा सुख घर में माया।' इस उक्ति के दो खंड हैं । पहले में एक सुख निरोगी शरीर बताया है और दूसरे खंड में दूसरा सुख बताया है घर में माया अर्थात् लक्ष्मी का होना । लक्ष्मी से प्राप्त होने वालों सुखों से आप अपरिचित नहीं हैं । आप जानते हैं कि दो पैसे पास में होने से आपका जीवन सुख-सुविधा के साधनों से परिपूर्ण रहता है तथा समाज में भी लोग इज्जत कराते हैं। पैसे के अभाव में व्यक्ति कितना भी विद्वान और धर्मात्मा क्यों न हो, आपके समाज में वह प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं कर पाता, जो एक धनी व्यक्ति प्राप्त करता है । आप कहेंगे कि हम साधु तो धन को हेय मानते हैं और इसे त्याग करने का उपदेश देते हैं फिर धन को महत्त्व क्यों देते हैं तथा इसे सुख क्यों मानते हैं ? बंधुओ, यहाँ जरा विचार करने की बात है कि साधु एकान्त रूप से और प्रत्येक स्थिति में ही धन का त्याग करने और उसे न छूने का उपदेश नहीं देते । और वे ऐसा करेंगे भी क्यों ? क्या उन्हें आहार-जल लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती ? क्या उन्हें आपसे वस्त्र नहीं लेना पड़ता और शिक्षा प्राप्त करने के लिए पंडितों की जरूरत नहीं पड़ती जिनको आप रुपये देते हैं ? यह सब आखिर पैसे से ही तो होता है । मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि आप श्रावक हैं और सद्गृहस्थ हैं अतः आपका कार्य पैसे के बिना नहीं चलता। किन्तु हमारा कहना यह होता है कि प्रथम तो आप अनीति से धन का उपार्जन न करें । अनीति अर्थात् बेईमानी और धोखे । बाजी से पैसा कमाने पर अनेकों व्यक्तियों को कष्ट होता है, उन्हें भूखा मरना पड़ता है तथा घोर दरिद्रावस्था में समय गुजारने के कारण नाना तकलीफें उठानी पड़ती हैं। और इस सबका मूल कारण आपकी अनैतिकता होती है तथा इसके फलस्वरूप आपके अशुभ कर्मों का बंध होता है। तो साधु आपको नीति एवं सदाचारपूर्वक जीवन बिताने की शिक्षा देते हैं ताकि आपकी आत्मा निर्मल और निष्कलंक बने । दूसरी बात हम आपको बार-बार यह कहते हैं कि आप अपनी जरूरत से अधिक धन इकट्ठा करने का प्रयत्न न करें क्योंकि ऐसा करने से आपकी पेटियाँ तो भर जाती हैं किन्तु अन्य सैकड़ों व्यक्तियों के पेट भी खाली रह जाते हैं । तो गरीबों के पेट खाली रखकर और उन्हें अधनंगा रहने पर मजबूर करके आप लाखों और करोड़ों का धन इकट्ठा कर भी लेंगे तो वह आपके क्या काम आएगा ? आखिर आप कितना खायेंगे और कितना पहनेंगे? पेट में समाने लायक अन्न और लज्जा ढकने जितना वस्त्र ही तो पहनेंगे। तब फिर अधिक परिग्रह इकट्ठा करने की लालसा क्यों रहती है ? क्यों आप लोगों की तृष्णा कभी समाप्त नहीं होती ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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