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न शुचि होगा यह किसी प्रकार
कहने का अभिप्राय यही है कि वक्ता को वाचाल कहना दुर्जन या निंदक का ही कार्य है । वह वक्ता को वाचाल कहता है और जो अधिक नहीं बोलता तथा चलविचल न होता हुआ अपनी साधना में स्थिर रहता है, उसे अशक्त कहता है। उसे स्थिरता गुण न दिखाई देकर दोष मालूम देता है।
श्लोक का सारांश यही है कि दुर्जन व्यक्ति गुणियों के किस गुण को लांछित नहीं करता? यानी प्रत्येक गुण को वह दोष मानता है तथा उसको लांछित करता है । किन्तु संत-महापुरुष ऐसे व्यक्तियों के कथन की तनिक भी परवाह न करते हुए अपने मार्ग पर दृढ़तापूर्वक गमन करते रहते हैं। जिस प्रकार हाथी कुत्तों के भोंकने की परवाह न करता हुआ धीर गति से अपने गन्तव्य की ओर बढ़ता रहता है, तनिक भी विचलित नहीं होता, उसी प्रकार साधु-पुरुष निंदकों की परवाह न करता हुआ सुमार्ग पर या साधना के मार्ग पर बढ़ता चला जाता है ।
जो साधक सच्चे अर्थों में संयम रूपी रस का आस्वादन कर लेता है, वह निन्दा को भी परिषह मानकर उस पर विजय प्राप्त करता है। हमारा आज का विषय भी परिषह पर ही चल रहा है । इसमें अठारहवें "जल्ल परिषह" का वर्णन है। बताया गया है कि भयानक ग्रीष्म ऋतु में होने वाले परिताप के कारण भले ही साधु के शरीर पर अत्यधिक प्रस्वेद आ जाय और उस पर रज के जम जाने से वह कीचड़ के समान असह्य महसूस होने लगे, तब भी आत्मार्थी साधु यह विचार न करे कि कब यह कीचड़ रूपी मल दूर होगा और मुझे सुख की प्राप्ति हो सकेगी? ऐसी भावना उसे व्यक्त या अव्यक्त रूप में इसलिए नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह अपने शरीर का ममत्व सर्वथा त्याग देता है तथा केवल आत्मिक सुख की ओर ही अपना लक्ष्य बनाए रहता है । ऐसी स्थिति में शरीर पर शृगार हो तो क्या और न हो तो क्या ? शरीर स्वच्छ हो तो क्या और उस पर प्रस्वेद तथा धूल के जम जाने से वह मलयुक्त हो तो क्या ?
सच्चे सयमी या मुनि तो संसार से सर्वथा विरक्त रहते हैं तथा भयानक से भयानक परिषहों के आ उपस्थित होने पर भी अपने साधना-मार्ग से विचलित न होते हुए प्राणों का परित्याग करने के लिए सदा तत्पर रहते हैं। उनके लिए प्रस्वेद या उस पर जमी हुई रज से होने वाला कीचड़ रूपी मल क्या चीज है ? वे तो शरीर से सर्वथा उदासीन रहते हुए केवल आत्मा पर जमे हुए कर्म-रूपी को मल हटाने का प्रयत्न करते हैं, ताकि उनकी आत्मा को पुनः-पुनः जन्म-मरण न करना पड़े और न ही पुनः-पुनः शरीर धारण करके आत्मा को इस शरीर-रूपी कारागार में कैद रहना पड़े। ऐसे विवेकशील विचारों के कारण ही वे इस जड़ शरीर की स्वच्छता का ध्यान न रखते हुए आत्मा की स्वच्छता में लगे रहते हैं। कहा भी है
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