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आनन्द प्रवचन | छठा भाग राजा को मार्ग की जानकारी होने पर असीम प्रसन्नता हुई किन्तु महान् आश्चर्य इस बात से हुआ कि अन्धी वृद्धा ने मुझे राजा समझ कैसे लिया ? अतः वह पूछ बैठा-"माता ! तुम्हें दिखाई तो नहीं देता, फिर भी तुमने यह कैसे जान लिया कि मैं राजा हूँ और मेरे साथ नाई है ?"
वृद्धा ने उत्तर दिया- "हुजूर ! आपका नाई मुझसे बड़ी अभद्रता से बोला था, इससे मैंने जान लिया कि यह अवश्य ही राजा का कोई नौकर या नाई होगा। किन्तु आपकी वाणी की मधुरता और सम्मानपूर्ण वचनों से मैंने समझ लिया कि आप निश्चय ही महाराज हैं। क्योंकि कुलीन एवं महापुरुष कभी तुच्छतापूर्ण वचनों का प्रयोग नहीं करते ।"
तो बन्धुओ, मैं आपको दुर्जन व्यक्तियों के विषय में बता रहा था कि वे प्रत्येक व्यक्ति में दोष ढूंढ़ा करते हैं और इतना ही नहीं, वे तो गुणी पुरुष के गुणों को भी दोष मानते हैं। ऐसे व्यक्ति मधुरभाषी को दीन कहते हैं, साथ ही कायर कहने से भी नहीं चूकते । श्लोक में आगे कहा है
'मुखरता वक्तुः न्यशक्ति स्थिरे ।' __ अर्थात्-अगर व्यक्ति अच्छा वक्ता होता है यानी किसी भी विषय को सुन्दर तरीके से समझा सकता है और भिन्न-भिन्न प्रकार से उसकी विवेचना करके श्रोता के दिमाग में विषय को स्पष्ट करके बैठाने की क्षमता रखता है तो दुष्ट व्यक्ति उसे वाचाल कहते हैं।
अगर बोलना बुरा माना जाए तो संत-महापुरुष अपने संसर्ग में आने वाले प्राणियों को आत्म-शुद्धि का मार्ग अथवा भगवान की आज्ञाओं को किस प्रकार श्रोताओं को समझा सकते हैं ? हमारे गुरुजनों ने जिस प्रकार हमें जिनवाणी का रहस्य समझाया, हम भी उसी प्रकार अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार आपको समझाने का प्रयत्न करते हैं । वाचालता जिसे कहते हैं, उसका तो भगवान ने भी निषेध किया है। दशवकालिक सूत्र में स्पष्ट कहा गया है
दिळं मियं असंदिद्ध, पडिपुन्नं वि अंजियं ।
अयंपिरमणुविग्गं, भासं निसिरअत्तवं ॥-८-४६ अर्थात्-आत्मार्थी साधक अनुभूत, परिमित, सन्देहरहित, परिपूर्ण एवं स्पष्ट वाणी का प्रयोग करे पर सदा यह ध्यान रखे कि वह वाचालता से रहित तथा औरों को उद्विग्न करने वाली वाणी न हो।
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