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न शुचि होगा यह किसी प्रकार
२६५ सांसारिक जिम्मेदारियों से ऊबकर संयम का ढोंग कर सकते हैं ? कभी नहीं, बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं तथा चक्रवतियों ने अपने असीम वैभव को ठोकर मारकर जो मुनिवृत्ति अपनाई, वह क्या किसी कायरपने की भावना से या सांसारिक झंझटों की चिन्ताओं से घबराकर अपनाई ? नहीं, मुनिवृत्ति का, संयम का मार्ग केवल विरक्ति से अपनाया है या कर्मों का नाश करके सदा के लिए जन्म-मरण के चक्र से छूटने की इच्छा से ।
लेकिन दुर्जनों में यह सब समझने का विवेक कहाँ होता है ? वे तो केवल दोष-दर्शन ही करते हैं तथा संतों को दंभी या पाखंडी मानते हैं। पवित्रता को वे कपट कहते हैं और प्रिय वचनों को दीनता । वे नहीं जानते कि मधुर भाषण करना स्नेह एवं विनय का सूचक होता है। हमारे 'दशवैकालिक सूत्र' में कहा गया है
हिअ-मिअ अफरुसवाई, अणुवीइभासि वाहओ विणओ । अर्थात्-हित, मित, मृदु एवं विचारपूर्वक बोलना वाणी का विनय है ।
दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि वाणी के द्वारा मनुष्य के उत्तम या जघन्य होने की पहचान होती है । वाणी एक ऐसी कसौटी है, जिस पर मनुष्य की कुलीनता और अकुलीनता की भी परख हो जाती है ।
कहते हैं कि एक बार एक राजा और उसके साथ रहने वाला नौकर दोनों घोर वन में भटक गए तथा बहुत खोजने पर भी उन्हें मार्ग नहीं मिला।
किन्तु संयोग से एक स्थान पर छोटी-सी झोंपड़ी दिखाई दी, जिसके बाहर एक अन्धी वृद्धा बैठी हुई थी। उसे देखकर राजा ने नाई से कहा-'जाकर उस वृद्धा से मार्ग पूछ आओ कि हमें यहाँ से किस दिशा में जाना चाहिए ताकि नगर का मार्ग मिल जाय ।
__नाई महाराज की आज्ञानुसार झोंपड़ी के पास गया और वृद्धा को सम्बोधित कर बोला-"ए बुढ़िया ! बता कि यहाँ से शहर जाने के लिए किस दिशा में जाना चाहिए ?"
वृद्धा ने नाई की बात सुन ली पर उत्तर कुछ नहीं दिया। जब नाई ने राजा से यह बात बताई तो राजा स्वयं झोंपड़ी के पास गया और बोला-"माताजी ! हम लोग इस जंगल में भटक गये हैं, मेहरबानी करके हमें बताओ कि किस ओर जाने पर हमें नगर के लिए रास्ता मिल सकेगा ?"
वृद्धा यह सुनकर बोली-"महाराज ! अपने नाई से कहिये कि वह आपको मेरी झोंपड़ी के पिछवाड़े से होकर ले जाए। कुछ दूर जाने पर ही आपको शहर में पहुँचाने वाली पगडंडी मिल जाएगी।"
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