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________________ २६४ आनन्द प्रवचन | छठा भाग कटु एवं अविवेकपूर्ण बात का उत्तर नहीं देता है तो दुष्ट व्यक्ति उसे जड़ या बुद्धिहीन कहते हैं । वे कह देते हैं— इसमें अकल ही कहाँ है उत्तर देने लायक । I इसी प्रकार अगर कोई धर्मप्रेमी और आत्मा का हितैषी व्यक्ति त्याग को अपनाता है या व्रत ग्रहण करता है, तो भी दुर्जन व्यक्ति उसे दम्भी या ढोंगी कहकर पुकारते हैं । ऐसे व्यक्तियों से पूछा जाय, कि औरों के त्याग व्रतों से तुम्हें क्या कष्ट होता है और फिर तुम्हें उससे लेना-देना भी क्या है ? व्यर्थ में निन्दा करने से आखिर मिलता ही क्या है ? पर आदत जो ठहरी । दोष-दर्शन की लत भी और लतों के समान ही होती है, जिसके बिना उनका खाना पचना कठिन हो जाता है । दुर्जन व्यक्ति शूरवीरों को निर्दयी एवं हत्यारा कहते हैं तथा मुनियों को कायर बताते हैं । उनका कथन यही होता है कि साधु बनने में क्या कष्ट है ? न तो उन्हें कोई कार्य ही करना पड़ता है और न कमाई । दोनों जून तैयार और उत्तम भोजन सीधा मिल जाता है तथा पहनने के लिए वस्त्रों की सहज ही उपलब्धि हो जाती है । और इसके अलावा सेवा करने के लिए शिष्य होते हैं तथा पूजा-प्रतिष्ठा लोग करते ही हैं । फिर साधु बनने में तकलीफ ही क्या है ? तो दुर्जन व्यक्ति जिन्होंने साधु-मार्ग पर एक कदम भी नहीं रखा है वे ही ऐसा प्रलाप करते हैं । पर उस जीवन में कितनी गहराई है ? कितना त्याग है ? कितने परिषहों का कष्ट है एवं मन पर कितना नियंत्रण रखा जाता है, इसे वे नहीं समझते । ऐसे व्यक्तियों से अगर यह कह दिया जाय कि साधु-जीवन बड़ा आनन्दप्रद है तो आओ, तुम भी साधु बन जाओ । तो संभवतः वे उसी क्षण भाग खड़े होंगे । साधु बनना सहज नहीं है । वे कैसे होते हैं इस विषय में कहा गया है निम्ममो निरहंकारो, निस्संगो चत्तगारवो । समो अ सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु य ॥ लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा । समो निन्दापसंसासु तथा माणावमाणओ || - उत्तराध्ययन सूत्र अर्थात् - संत वही है जिसने ममता को मार डाला है, अहंकार को नष्ट कर दिया है, सब प्रकार के परिग्रह का त्याग कर दिया है, बड़प्पन को छोड़ दिया है, जो स्थावर एवं जंगम प्राणिमात्र के प्रति समान भाव रखता है, जो लाभ तथा हानि में, सुख और दुःख में, जीवन-मरण में तथा निन्दा - प्रशंसा, मान और अपमान में एक-सा रहता है । इन बातों से स्पष्ट है कि साधु का जीवन कितना उत्कृष्ट एवं तप त्यागमय होता है । क्या ऐसे संत कभी आजीविका के उपार्जन से घबराकर अथवा अपनी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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