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न शुचि होगा यह किसी प्रकार
महामेघः क्षारं पिबति कुरुते वारि मधुरम्, फणी क्षीरं पीत्वा वमति गरलं दुस्सहतरम् ॥
कहा गया है— सज्जन के मुँह में पहुँच कर दोष गुण बन जाते हैं तथा दुर्जन के मुँह में पहुँचने से गुण भी दोष बन जाते हैं, यह कोई विस्मयपूर्ण बात नहीं है । क्योंकि हम देखते हैं - मेघ समुद्र का खारा जल पीते हैं, किन्तु उसे मीठा बनाकर बरसाते हैं और इसके विपरीत सर्प दूध पीता है पर उसे विष बनाकर उगलता है ।
इसी तरह के और भी अनेकों उदाहरण दिये जा सकते हैं । यथा - सोमिल ब्राह्मण ने गजसुकुमाल को मरणान्तक कष्ट दिया, पर उन्होंने सोमिल को अपने समस्त कर्मों को नष्ट कराने वाला हितैषी समझा । महासती चन्दनबाला को सेठानी मूलाबाई ने हथकड़ियों और बेड़ियों से जकड़कर तलघर में डाल दिया, किन्तु भगवान को उड़द के बाकुले आहार-दान के रूप में देने पर जब घर में सुवर्ण-वृष्टि हुई और मूलाबाई को पश्चात्ताप हुआ तो चंदनबाला ने यही कहा " माताजी ! आपकी कृपा से ही यह सब हुआ ।" इसी प्रकार सेठ सुदर्शन को अभयारानी ने झूठा कलंक लगाकर सूली पर चढ़वाने का प्रबन्ध कर दिया किन्तु जब सूली टूटकर सिंहासन बन गई और देवों ने "अहो शीलम् " " अहो शीलम्" कहकर पुष्प वृष्टि की तो रानी, राजा एवं सभी ने अपने अपराधों के लिए क्षमा माँगी, पर सुदर्शन सेठ ने किसी की भी गलती नहीं मानी अपितु सभी को अपना सहायक समझा ।
कहने का आशय यही है कि सज्जन या महापुरुष औरों के दोषों को भी गुण के रूप में ग्रहण करते हैं किन्तु दुर्जन व्यक्ति गुणवानों के गुणों को भी दोष मानते हैं । इस सम्बन्ध में एक श्लोक कहा गया है—
जाड्यं ह्रीमति गण्यते व्रतरुचौ
दम्भः शुचौ कैतवम् । शूरे निर्घृणता मुनौ विमतिता,
दैन्यं प्रियालापिनि ॥
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तेजस्विन्यवलिप्तता
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मुखरता, वक्तुः न्यशक्ति स्थिरे ।
२६३
तत्को नाम गुणो भवेत् स गुणिना,
यो दुर्जनैः न लांछितः ?
इस श्लोक में बताया गया है कि दुर्जन व्यक्ति किसे दोषी नहीं बताते ? अर्थात् वे प्रत्येक में अवगुण ही देखते हैं । जैसे समझदार एवं विवेकी पुरुष किसी की
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