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न शुचि होगा यह किसी प्रकार
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
संवर तत्त्व के पच्चीस भेदों का वर्णन किया जा चुका है। इनमें आए हैंपाँच समिति, तीन गुप्ति और सत्रह परिषह । अब संवर के छब्बीसवें भेद या अठारहवें परिषह के विषय में बताया जायेगा। इस परिषह का नाम है-'जल्ल परिषह ।'
इस विषय में 'श्री उत्तराध्ययन सूत्र' के दूसरे अध्याय में छत्तीसवीं गाथा दी गई है । गाथा इस प्रकार है
किलिन्नगाए मेहावी, पंकेण व रएण वा।
घिस् वा परियावेणं, सायं नो परिदेवए अर्थात्-प्रस्वेद के कारण शरीर गीला हो गया है अथवा कीचड़ रूप हो गया हो तथा रज से या ग्रीष्म और शरद ऋतु के परिताप से शरीर पर मल जम गया हो तो भी बुद्धिमान साधु सुख की इच्छा न करे ।
'मेहावी' मागधी भाषा का शब्द है और संस्कृत में मेधावी यानी 'धीर धारणावती मेधा ।' तो मेधावी अर्थात् बुद्धिमान व्यक्ति को यह विचार नहीं करना चाहिये कि मेरे शरीर पर मैल इकट्ठा हो गया है और तीव्र गरमी या धूप के कारण शरीर पर पसीना आ जाने से यह गीला तथा चिपचिपा हो रहा है। शरीर के प्रति ग्लानि की ऐसी भावना का आना संवर के मार्ग से विचलित होना है । धूप का पड़ना
और उससे गर्मी पैदा होना प्राकृतिक है । इसलिए पूर्ण समभाव से उसे सहन करना चाहिये तथा पसीने से घबराकर आत्मा में खेद या दुःख का अनुभव नहीं करना चाहिए।
संस्कृत के एक श्लोक में बताया गया है कि यह जीवात्मा पदार्थ को जिस रूप में लेने की इच्छा करे उसी रूप में ले सकता है । महापुरुष तो बुराई में से भी अच्छाई लेते हैं। श्लोक इस प्रकार हैगुणायन्ते दोषाः सुजन वदने दुर्जन मुखे,
गुणा दोषायन्ते तदिदमपि नो विस्मयपवम् ।
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