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क्यों डूबे मझधार ?
२६१ इसीलिए कवि ने इनसे बचने के लिए कहा है और इनसे दूर रहने का उपाय केवल इन्द्रियों पर पूर्ण संयम रखना यानी इन्हें अपने कब्जे में रहना है । ऐसा न करने पर ये कभी भी मनुष्य को अपनी मंजिल तक जिसे हम मुक्ति कहते हैं, पहुंचने नहीं देंगी।
मुनि इन चोरों को पहचान लेते हैं और इसीलिए पाँचों इन्द्रियों की तरफ से सर्वथा विमुख होकर रूक्ष भाव अपनाते हैं । अपने रूखे स्वभाव के कारण ही वे शरीर की ममता त्याग देते हैं तथा स्पर्शेन्द्रिय की तनिक भी परवाह न करते हुए 'तृणपरिषह' को पूर्ण शांति एवं संतोष से समतापूर्वक सहन करते हैं ।
इस विषय में कही हुई श्री उत्तराध्ययन सूत्र की गाथा में बताया है कि आतप से होने वाली वेदना की तनिक भी परवाह न करके मुनि वस्त्रादि का सेवन नहीं करते । यहाँ आतप से तात्पर्य ग्रीष्म एवं शीत दोनों से लिया जा सकता है । संयमी मुनि ग्रीष्म एवं शीत, दोनों ही आतपों से व्याकुल नहीं होता तथा तृणादि के स्पर्श से होने वाले परिषह का पूर्ण दृढ़ता एवं समता से सामना करता है । यही संवर का मार्ग है और इस मार्ग पर चलने वाला अन्त में अजर-अमर पद प्राप्त करता है। *
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