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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
मूर्ख और अज्ञानी पुरुष कूप-मण्डूक के समान होते हैं। उन्हें यह भान नहीं होता है कि संसार के इन भौतिक पदार्थों के सुख से परे भी और कोई सुख है जो सदा शाश्वत रहता है और जिसकी तुलना में सांसारिक सुख कुछ भी नहीं के समान हैं। वे सदा सांसारिक सफलताओं के लिए ही प्रयत्नशील रहते हैं। उनकी इच्छाएँ आकांक्षाएँ और अभिलाषाएँ केवल जगत के पदार्थों तक ही सीमित रहती हैं।
ऐसे व्यक्तियों के भावों को गीता में इस प्रकार चित्रित किया गया है
आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः । ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थ सञ्चयन् ।। इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम् । इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ॥
__ अर्थात्-सैकड़ों अभिलाषाओं के पाश में बँधे हुए, क्रोध में परायण, कामभोगों की पूर्ति के लिए धन आदि भोगोपभोगों के पदार्थों का संचय करने की चेष्टा में रहते हैं। वे कहते हैं—'आज मैंने यह पा लिया है और अब अमुक मनोरथ को पूर्ण करूंगा। इतना धन तो मैंने कमा लिया है तथा इतना अब और कमाऊँगा।'
ऐसे व्यक्ति भला धर्म के महत्व को कैसे समझ सकते हैं, और किस प्रकार अपने हृदय मन्दिर को कामभोगों एवं विषय-कषायों से रिक्त करके आत्मा के शुभ्र सिंहासन पर धर्म को आसीन कर सकते हैं। वे तो इन्द्रियों के दास बने रहते हैं और उन्हें तृप्त करना ही जीवन की सार्थकता मानते हैं।
किन्तु हमारे चालू भजन की अगली गाथा में स्पष्ट कहा गया है
पांच चोर बसते इस तन में, मिल कर लूटेंगे इक छिन में। मत धोखे में फंसो, मिले हैं गांठ कतरने को-क्षमा है ।
पद्य में शरीर को एक नगर की उपमा देते हुए कहा है कि इसमें पांच बड़े जबर्दस्त चोर निवास करते हैं । वे हैं-श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय एवं रसना-इन्द्रिय ।
मनुष्य अगर पूर्वकृत कुछ पुण्यों के द्वारा थोड़ा-सा ज्ञान, दर्शन, चारित्र्य एवं तप-जप रूपी धन इकट्ठा कर भी लेता है तो पाँचों चोर मौका पाते ही उसे क्षण भर में लूट लेते हैं। मनुष्य की गाँठ कतरने के लिए और उसे धोखे में डालने के लिए इनकी साठ-गाँठ रहती है । जहाँ इनमें से एक भी स्थान बनाता है, अन्य चारों भी उसके साथ हो जाते हैं और व्यक्ति को सर्वथा दरिद्र बनाकर ही छोड़ते हैं।
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