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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
लेने के लिये दो घंटे के बाद तुम्हारा पीछा करूंगा । अच्छा हो कि तुम मेरी पहुँच के बाहर चले जाओ, अन्यथा मैं तुम्हें पकड़ कर मार डालूंगा।" ___ अरब के यह वचन सुनकर और उसका परिचय जानकर घातक की आखें आश्चर्य से मानों कपाल पर चढ़ गई, किन्तु यह जानकर कि इस महान व्यक्ति ने अपने पुत्र का घातक जानकर भी मेरी इतनी लगन से और इतने दिन तक सेवा की है, उस पर जैसे घड़ों पानी पड़ गया । अपने कुकृत्य का स्मरण करके उसे इतना पश्चात्ताप हुआ कि वह एक कदम भी वहाँ से नहीं उठा सका। उलटे रोते हुए उस अरब के पैरों पर गिर पड़ा और बोला
"तुम मनुष्य नहीं, देवता हो ! पर मैं तुम्हारे पुत्र की हत्या जैसा पाप करके अब जीवित रहना भी नहीं चाहता। दो घंटे बाद तो क्या, इसी क्षण अपनी तलवार उठाओ और मेरा सिर धड़ से अलग कर दो। मैं महापापी हूँ और अपने पाप का प्रायश्चित्त करने के लिये सहर्ष तैयार हूँ। भाई ! तलवार उठाओ तथा इसी क्षण मेरा वध करके मुझे पाप से मुक्त करो।"
घातक के ऐसे वचन सुनने पर क्या वह अरब जिसने अपने महान् शत्रु की भी जी जान से सेवा की थी, उसे मार सकता था ? नहीं। अरब ने अपनी तलवार एक ओर फेंक दी और अत्यन्त उदारतापूर्वक अपने पुत्र के हत्यारे को क्षमा करते हुए हृदय से लगा लिया ।
बंधुओ, क्षमा का कितना ऊँचा आदर्श इस कथा में निहित है ? क्या कोई साधारण व्यक्ति ऐसी क्षमा को अपने अन्तर में जगा सकता है ? नहीं, यह केवल महापुरुषों के वश की बात है । वे ही ऐसी उत्तम क्षमा को धारण करके भव-सागर पार कर जाते हैं।
विद्ववर्य पं० शोभाचन्द्र जी भारिल्ल ने बारह भावनाओं को लेकर जो 'भावना' नामक पुस्तक लिखी है, उसमें एक स्थान पर आश्रव को रोकने की प्रेरणा देते हुए लिखा है
होकर समर्थ जो क्षमा-भाव दिखलाते, अपराधी पर भी क्रोध न मन में लाते । समता के सागर में जो नित्य नहाते, भव-सागर को वे शीघ्र पार कर जाते ।
उपशान्त भाव शाश्वत अनन्त सुखदायी,
कर आश्रव को निर्मूल मुक्ति अनुयायी । कितना सुन्दर उद्बोधन है ? कहा है- "हे मुक्ति के इच्छुक प्राणी ! अगर तुझे शाश्वत एवं अनन्त सुख की प्राप्ति करनी है तो समभाव को धारण करके आश्रव को निर्मूल कर।
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