SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्यों डूबे मझधार ? २५३ थपेड़ों से लू लग गई । लू बड़ी तेज थी अतः उसे तीव्र ज्वर हो आया । ज्वर की पीड़ा से बेचैन होकर उसने समीप ही कहीं आश्रय लेने का विचार किया और गिरता - पड़ता, किसी तरह मार्ग में स्थित एक तम्बू के द्वार पर पहुँचा । किन्तु वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते वह बेहोश हो गया । कुछ ही समय पश्चात् तम्बू का मालिक बाहर आया और जब उसने एक व्यक्ति ज्वराक्रान्त होकर उसके खेमे के दरवाजे पर पड़ा है तो उसने भरकर अविलम्ब उसे उठाया और अन्दर ले जाकर लिटा दिया । पर बड़े आश्चर्य की बात यह हुई कि तम्बू का मालिक वही अरब था जो अपने पुत्र के घातक को खोजते खोजते उस जंगल में रात्रि विश्राम के लिये खेमा तानकर ठहरा हुआ था, और उसके दरवाजे पर आकर बेहोश हो जाने वाला व्यक्ति उसी के पुत्र का हत्यारा था, जिसे खोजने में वह अनेक दिनों से बावला बना फिर रहा था । देखा कि करुणा से प्यासा बन गया लिये तैयार हो किया कि मेरे अरब अपने पुत्र-घाती को अपने ही खेमे में देखकर खून का और उसकी गर्दन उड़ा देने के लिए तलवार लेकर प्रहार करने के गया । किन्तु उसी क्षण उसका विवेक जाग्रत हुआ और उसने विचार पुत्र का हत्यारा शस्त्र - रहित है, बेहोश है और मेरा अतिथि भी है । ऐसी स्थिति में चाहे यह दुश्मन ही है यह मेरा, इसे मार डालना उचित नहीं है । यह विचार मन में आते ही अरब ने अपनी तलवार पुनः म्यान में रख ली और रुग्ण पुत्र- घातक की सेवा में जुट गया । कई दिनों तक रात-दिन जागकर उसने रोगी की सेवा की। पहले तो उसकी मूर्छा दूर होने में ही काफी समय लग गया और उसके बाद पूर्ण स्वस्थ होने में भी कई दिन लग गये । अरब ने घातक व्यक्ति की सेवाशुश्रुषा में कोई कमी नहीं रखी और उसे इतना स्वस्थ कर दिया कि वह मीलों लम्बी यात्रा करने में समर्थ बन गया । वह घातक अरब को पहचानता नहीं था । पर एक दिन उस अरब ने कहा - "देखो ! तुम मेरे पुत्र के हत्यारे हो, और मैं चाहता तो कभी का तुम्हें यमलोक पहुँचा देता । किन्तु शरण में आए हुए व्यक्ति को और रुग्ण व्यक्ति को मारने की मेरी इच्छा नहीं हुई । अतः मैंने तुम्हें पूर्ण स्वस्थ कर दिया है । अब आज तुम मेरा यह सबसे बलवान एवं द्रुतगामी ऊँट ले जाओ और जितनी जल्दी और जितनी दूर भाग सको, भाग जाओ। मैंने अतिथि सत्कार या सेवा का अपना एक कर्त्तव्य पूरा कर दिया है पर अपने पुत्र की मृत्यु का बदला लेना जो कि मेरा दूसरा कर्त्तव्य है, उसे पूरा करना शेष है । इसलिये अतिथि के नाते मैं तुम्हें यह उत्तम ऊँट देकर भागने का मौका देता हूँ, पर पुत्र की मृत्यु का बदला Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy